गद्दियाँ
रवि अरोड़ा
सर्दियों की बात है । धूप में बैठा कुछ पढ़ रहा था । इसी बीच डाकिये ने एक पैकेट घर में फेंका और चला गया । उत्सुकतावश दौड़ कर पैकेट उठाया और खोला । भीतर भारतीय सेना की एक पत्रिका थी । हैरानी हुई कि मुझे सेना की पत्रिका किसने भेजी और क्यों ? तभी पैकेट पर नज़र गई । वहाँ प्राप्तकर्ता के स्थान पर मेरी बजाय किसी गौरव शर्मा का नाम लिखा था । हालाँकि पता मेरे ही घर का था । वह घर जिसे बनाने में मेरी पूरी उम्र निकल गई । अहं को ठेस लगी कि मेरे घर के पते पर मेरी बजाय किसी और का नाम क्यों ? तुरंत ही याद आया कि इस घर में पहले कर्नल गौरव शर्मा ही तो रहते थे । यह घर उनके स्वर्गीय पिता ने चालीस साल पहले ही तो बनवाया था । कर्नल साहब अब अपने परिवार सहित ग्रेटर नॉएडा में कहीं रहते हैं । ख़ाली दिमाग़ कहिए या सर्दियों की गुलाबी धूप का असर , मैं हिसाब लगाने लगा कि शर्मा परिवार से पहले इस भूखंड की मिल्कियत किसकी रही होगी ? काग़ज़ों के हिसाब से तो इसे ग़ाज़ियाबाद इम्प्रूव्मेंट ट्रस्ट का होना चाहिए था । जीडीए पहले इसी नाम से तो जाना जाता था । लेकिन इम्प्रूव्मेंट ट्रस्ट की तो अपनी कोई ज़मीन ही नहीं थी और मेरी कालोनी राज नगर के लिए उसने सिहानी गाँव के लोगों की ज़मीनें अधिग्रहीत की थीं । सिहानी मूलतः त्यागी बिरादरी का गाँव है । ज़ाहिर है सौ-पचास साल पहले किसी त्यागी ज़मींदार का खेत रहा होगा यह भूभाग । धूप ने और असर दिखाया और मैं कल्पनाओं के घोड़े दौड़ाने लगा कि अंग्रेज़ों के काल में तो यहाँ ज़रूर किसी अंग्रेज़ अफ़सर का जलवा होगा। उससे पहले दिल्ली की मुग़ल सल्तनत का यह हिस्सा भी रहा होगा। और पीछे जाने पर मुझे किसी मुस्लिम शासक और उससे भी पीछे जाने पर इंद्रप्रस्थ, महाभारत काल और वैदिक काल के जंगल और ना जाने क्या क्या यहाँ नज़र आने लगे । हालाँकि अपनी कल्पनाओं को और भी पीछे मैं ले जा सकता था मगर अब यह फ़िज़ूल नज़र आने लगा । मैं समझ गया कि चीज़ें सदा एक सी नहीं रहतीं । वक़्त भी कभी ठहरता नहीं है । इतिहास तो ख़ैर निर्दयी है ही । सोच भी सदा एक सी कहाँ रहती है । आज एक विचार दुनिया को बहला रहा है मगर कल तक दूसरे विचार से दुनिया चलती थी । पढ़े लिखे लोग वाम , दक्षिण पंथ और ना जाने इसे क्या क्या कहते हैं । मैं तो बस इसी विचार में गुम था कि लोग बाग़ अपना अतीत भूल क्यों जाते हैं ?अपने विचार की दुनिया में मस्त लोग दूसरों को कुछ समझते क्यों नहीं ? आज के दौर में भी यही तो हो रहा है । गद्दियों ने बहुतों के दिमाग़ ख़राब किए और अब भी कर रही हैं । वही गद्दियाँ जो कल तक किसी और के नीचे थीं । गद्दियों का तो चरित्र ही कुछ एसा है । जो बैठा , उसी का दिमाग़ हवा में । मगर मुझे यह समझ नहीं आ रहा कि गद्दियों की तो रजिस्ट्री भी नहीं होती । उस पर बैठा आदमी उसका मालिक भी नहीं कहलाता फिर इस पर बैठे लोग एसा अहंकारी व्यवहार क्यों करते हैं ? क्यों मेरी तरह किसी घर को अपना मान बैठते हैं ? आगा-पीछा कुछ दिखता क्यों नहीं ? काश इन्हें भी कभी फ़ुर्सत मिले और मेरी तरह धूप में बैठकर हिसाब लगायें कि वक़्त बहुत ज़ालिम है और यह किसी को मुआफ़ नहीं करता । किसी को मतलब, किसी को भी नहीं ।