एक संस्थान की हत्या

रवि अरोड़ा

दशकों तक विभिन्न अख़बारों में क़लम घसीटने के कारण मैंने सैंकड़ों लोगों की हत्याओं पर ख़बरें लिखी होंगी मगर किसी संस्थान की हत्या पर कभी कुछ लिखना नहीं पड़ा । आज यह काम भी कर रहा हूँ । अर्बन नक्सली, देशद्रोही, टुकड़े-टुकड़े गैंग और देशविरोधी गतिविधियों का तमग़ा यदि किसी संस्थान पर लगा दिया जाये तो यह उसकी हत्या से कम है क्या ? एबीवीपी के छुटभैया कार्यकर्ता से लेकर देश के प्रधानमंत्री तक जिसे पानी पी पीकर कोसते हों और देश में मौजूद करोड़ों की संख्या में उनका सोशल मीडियाई टिड्डी दल सुबह शाम जिस संस्थान पर थू थू करता हो , उस संस्थान की प्रतिष्ठा फिर रही ही कहाँ ? जी हाँ मैं जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय यानि जेएनयू की बात कर रहा हूँ ।

पढ़ाई के दिनो में मैंने भी जेएनयू का सपना देखा था । जानकारी की तो पता चला कि इतना आसान नहीं है यहाँ प्रवेश मिलना । देश भर के लाखों लोग यहाँ एडमिशन की कोशिश करते हैं और बस चंद लोगों को ही सफलता मिलती है । कोई सिफ़ारिश नहीं, कोई जुगाड़ नहीं, केवल क़ाबलियत ही पैमाना है । सफल होने वाले अधिकांशत ग़रीब परिवारों के मेधावी बच्चे ही होते हैं । श्रेष्ठता के आधार पर ही सरकारी संस्था नैक ने इसे देश का सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय घोषित किया और चार में से तीन दशमलव नौ अंक दिए । जेएनयू देश इकलौता एसा शिक्षण संस्थान है जहाँ के पूर्व छात्र को नोबल पुरस्कार मिला और लीबिया और नेपाल जैसे देशों के प्रधानमंत्री भी जेएनयू के पूर्व छात्र चुने गए । देश विदेश में ऊँची ऊँची कुर्सियों पर इस संस्थान के पूर्व छात्रों के क़ाबिज़ होने के समाचारों के बीच यह ख़बर कि देश की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन और विदेश मंत्री एस जय शंकर भी जेएनयू वाले हैं, किसी सुखद अहसास से कम नहीं।

सुनते हैं कि तमाम अफ़वाहों और दुष्प्रचार के बावजूद जेएनयू में एडमिशन मिलना आज भी मुश्किल है । एक दर्जन से अधिक तरह के कोर्सेस की कुछ साढ़े आठ हज़ार सीटें हैं और देश-दुनिया से लाखों लोग इसकी प्रवेश परीक्षा देते हैं । सफलता की दर मात्र छः प्रतिशत है । जिन्हें एडमिशन मिलता है वे किसी मंत्री संतरी के बच्चे नहीं वरन अधिकतर ग़रीब मज़दूरों और किसानों के क़ाबिल बच्चे होते हैं । भिलाई के एक मज़दूर के बेटे किशन कुमार की आँखों में मात्र दस फ़ीसदी रौशनी है मगर क़ाबलियत के दम पर उसे प्रवेश मिल गया । मुरैना के सिक्योरिटी गार्ड के बेटे गोपाल कृष्ण, बोकारो के पेंट्री चालक की बेटी इंद्र कुमारी, सासाराम के किसान परसु की बेटी ज्योति भी उन हज़ारों बच्चों में से एक हैं जो सरकारी सहयोग से यहाँ बेहतर शिक्षा हासिल कर रहे हैं । सेंटर फ़ॉर स्टडी ओफ रीजनल डवलपमेंट के अनुसार जेएनयू के चालीस फ़ीसदी छात्र बेहद ग़रीब घरों से हैं । छियालिस परसेंट छात्रों के परिवार की मासिक आमदनी बारह हज़ार रुपये महीना भी नहीं है । कम फ़ीस और छात्रवृत्ति के कारण ही वे यहाँ पढ़ पा रहे हैं । बेशक जेएनयू की फ़ीस और होस्टल का ख़र्च बेहद कम है , मगर वह इकलौता एसा संस्थान नहीं है । सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षा इतनी ही सस्ती है । अनेक की फ़ीस और होस्टल चार्जेस तो इससे भी कम हैं ।

जेएनयू के इतिहास पर ग़ौर करूँ तो यहाँ विद्रोही तेवर शुरू से ही नज़र आते हैं । जिस नेहरु के नाम पर यह संस्थान बना उनकी बेटी इंदिरा गांधी को भी यहाँ के छात्रों ने परिसर में घुसने नहीं दिया । भोपाल गैस त्रासदी, तमिल आंदोलन और 1984 के सिख विरोधी दंगों में भी यहाँ के छात्रों ने सरकार के ख़िलाफ़ बिगुल बजा दिया था । हाँ यह बात और है कि जेएनयू परिसर को राष्ट्रविरोधी गतिविधियों का केंद्र इससे पहले कभी नहीं कहा गया । लानत है उन ख़ुराफ़ातियों पर जिन्होंने 9 फ़रवरी 2016 को अफ़ज़ल गुरु की तीसरी बरसी पर भारत विरोधी नारे लगा कर इस बड़े संस्थान की प्रतिष्ठा मटियामेट कर दी । बेशक इस मामले में जेएनयू छात्र संघ के तत्कालीन अध्यक्ष कन्हैया कुमार पर देशद्रोह का मुक़दमा चला मगर चार साल होने को आए , पुलिस यह अभी तक साबित नहीं कर सकी । जानकर बताते हैं कि भाजपा और उसके सहयोगी संघटनों की आँख की किरकिरी है जेएनयू परिसर । अपने संघटन एबीवीपी को परिसर में स्थापित करने के लिए साम दाम दण्ड और सभी तरीक़े अपनाये जा रहे हैं । दुष्प्रचार से काम नहीं चल रहा तो नक़ाबपोश गुंडों के रूप में छात्र नेताओं को पीटा जा रहा है । इसमें कोई दो राय नहीं कि जेएनयू परिसर में बहुतायत में कश्मीरी छात्र भी हैं और हो सकता है कि उनके भेष में कुछ देशद्रोही भी यहाँ घुस आये हों । मगर उन्हें पकड़ना किनका काम है ? आटे में बाल आ गया तो उसे निकाल कर बाहर करना चाहिये या पूरे आटे को नाली में बहा देना चाहिये ? वह आटा जो ग़रीब छात्रों के काम आ रहा है ? जेएनयू परिसर में एक दिन देश विरोधी नारे लगे , इस बात पर चार साल से गाल बजा रहे लोग कश्मीर पुलिस के डीएसपी उस दविंदर सिंह की बात क्यों नहीं कर रहे जो नारे नहीं लगा रहा था बल्कि सीधा सीधा देशद्रोह को अंजाम दे रहा था । दविंदर सिंह जैसे न जाने कितने लोग हमारे सिस्टम में हैं और न जाने किस किस बड़े ओहदे पर हैं । इन दविंदर सिंहों पर हमारे लीडरों का कोई ज़ोर नहीं चल रहा और ग़रीब मेधावी छात्रों के सहारे जेएनयू जैसे उन संस्थानों की हत्या पर तुले हैं , जहाँ के बच्चे उनके सुर में सुर नहीं मिलाते । अब सुन में सुर न मिलाने की इतनी बड़ी सज़ा कि देश के सर्वश्रेष्ठ शिक्षण संस्थान की हत्या पर ही आमादा हैं ?

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