आगे की राम जाने

रवि अरोड़ा
28 जनवरी की रात घर पर रज़ाई में दुबका हुआ टेलीविजन पर ख़बरें देख रहा था । ताज़ा ख़बरों में प्रमुख ख़बर किसान आंदोलन के बड़े नेता राकेश टिकैट के भावुक होने की भी थी । वे रोते हुए पत्रकारों से कह रहे थे कि किसानों के साथ धोखा हुआ है । यही नहीं वे आत्महत्या तक करने की भी बात कह रहे थे । देख कर मन बहुत द्रवित हुआ और उसके एक घंटे बाद ही मैंने ख़ुद को ग़ाज़ीपुर बोर्डर पर चल रहे किसान आंदोलन में खड़ा पाया । राकेश टिकैट के पास संयुक्त किसान मोर्चा के मंच पर गया तो देखा कि वे तमाम लोगों से घिरे गमगींन से चुपचाप बैठे हैं । मौक़े पर केवल हज़ार-बारह सौ के आसपास ही लोग रहे होंगे । मगर इसी बीच उनके रोने का वीडियो सोशल मीडिया पर भी वायरल हो गया और उसका इतना गहरा असर यह हुआ कि शाम तक जो आंदोलन बिखरता हुआ सा दिख रहा था , रात होते होते फिर जवाँ होने लगा । देखते ही देखते किसानो के जत्थे धरनास्थल पर पहुँचने शुरू हो गए और रात एक बजे तक किसानो की संख्या दोगुनी से अधिक हो चुकी थी । लगभग उजड़ चुके किसानो के तम्बू और खेमे भी अगले दिन से फिर लगने लगे और रविवार को जिस समय मैं यह पंक्तियाँ लिख रहा हूँ , ग़ाज़ीपुर बोर्डर पर तीस हज़ार से अधिक लोग पहुँच चुके हैं । यही नहीं हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के ऊधम सिंह नगर से किसानों, युवाओं और महिलाओं का आमद अभी भी लगातार जारी है और पता नहीं यह संख्या कहाँ जाकर रुकेगी । क्या यह हैरानी की बात नहीं है कि एक भावुक से वीडियो ने किसानो और उनके समर्थकों को इतना जोश भर दिया कि उनकी हारी बाज़ी फिर पलटती सी दिख रही है ?
हालाँकि भावुकता में बह कर फ़ैसले लेना हमेशा अच्छा नहीं होता मगर क्या करें , हम भारतीय हैं ही ऐसे । हमारा सारा इतिहास भावनाओं ने लिखा है । हमारे सारे पुराण और पौराणिक पात्र भावनाओं ने ही गढ़े हैं । आज़ादी का आंदोलन और उसके बाद की तमाम बड़ी घटनाएँ और उन पर हुई हमारी प्रतिक्रियाएँ भी इसी कोमल भावना की देन हैं । ये भावुकता ही हमसे दंगे करवा लेती है और ये भावुकता ही हमें पड़ोसी देशों से तनातनी में देश भक्त बना देती है । यही नहीं पड़ौसी देश से क्रिकेट मैच तक हमें भावुकता में बहा ले जाने की कूव्वत रखता है । इतिहास गवाह है कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी भावुकता हमसे नीच से नीच निर्ममता करवा लेती है तो उसके बाद बही राजनैतिक हवा हमें सहानुभूति में बहा ले जाती है । पुलवामा और बालाकोट जैसी घटनाएँ हमसे सत्तारूढ़ दल के तमाम अपराध भी मुआफ़ करवा सकती हैं और हमें फिर उन्हें ही सत्ता सौंपने पर मजबूर कर सकती है , जिनसे हम बेहद ख़फ़ा रहे होते हैं ।
मुझे नहीं मालूम कि दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे इस बड़े किसान आंदोलन का भविष्य क्या है । यह भी अंदाज़ा नहीं कि आख़िर कौन झुकेगा- किसान या सरकार । मगर इतना ज़रूर पता है कि किसानों का इसबार जिनसे वास्ता पड़ा है वे भावनाओं से नहीं षड्यंत्रों से काम लेते हैं । किसी भी आंदोलन को ख़त्म करने के उनके पास हज़ार टोटके हैं । किसानो में फूट डालने, उन्हें खलिस्तानी बताने और अब 26 जनवरी का उपद्रवी टोटका फ़ेल हो गया तो क्या , उनके तरकश में अभी और भी बहुत से तीर हैं । पता नहीं इस समर में दिल जीतेगा अथवा दिमाग़ । इन दिमाग़ वालों का इतिहास देखता हूँ लगता है कि जीत शर्तिया इन्हीं की झोली में जाएगी । जीत झपटने का इनका रिकार्ड आँखों के सामने है । मगर फिर याद करता हूँ कि दिमाग़ वाले तो इतिहास में और भी बहुत हुए हैं । एक से एक बड़ा शातिर किताबों में क़िस्सा बना क़ैद पड़ा है । जीत तो हमेशा दिल वालों की हुई है , कोमल भावनाओं और भावुकता की हुई है । अभी तक तो ऐसा ही होता आया है आगे की राम जाने ।

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