अगले तमाचे का इंतजार

रवि अरोड़ा
अंग्रेजी में अपना हाथ जरा तंग है । शायद यही वजह रही कि जेनोसाइड शब्द पहली बार तब पता चला जब कालेज के दिनों में हिटलर के बाबत जानने की जिज्ञासा हुई । विभिन्न अखबारों में काम करने के दौरान अंग्रेजी अखबार पढ़ना जब मजबूरी था तब भी यदा कदा इस शब्द से सामना होता रहा । हाल ही में फिर इस शब्द से दो दो हाथ करने पड़े जब दुनिया भर के मीडिया में भारत के संदर्भ इस शब्द का प्रयोग हुआ । दरअसल विश्व विख्यात गैर सरकारी संघटन जेनोसाइड वॉच ग्रुप के ग्रेगोरी स्टेंटन की वह चेतावनी पिछले हफ्ते सुर्खियों में रही जिसमें उन्होंने भारत में जेनोसाइड यानी नरसंहार की आंशका व्यक्त की है । उन्होंने यह चेतावनी पिछले माह हरिद्वार में हुई कथित धर्म संसद की हेट स्पीच के संदर्भ दी है । मगर पता नहीं क्यों भारतीय मीडिया और खास कर हिंदी मीडिया से यह खबर गायब है ?

मैं कतई नहीं कह रहा कि जेनोसाइड वॉच की इस चेतावनी को गंभीरता से लिया जाना चाहिए मगर ऐसा क्या है कि हम इस पर बात भी न करें ? खास तौर पर तब यह चेतावनी जारी करते हुए स्टेंटन दावा कर रहे हैं कि वर्ष 1994 में रवांडा देश में हुए जन संहार से एक वर्ष पूर्व भी उन्होंने इसकी आशंका व्यक्त कर दी थी , जो सही साबित हुई । बता दूं कि यह संस्था दुनिया भर में जातीय नरसंहार रोकने और उसकी पूर्व चेतावनी देने का काम करती है । भारत के संदर्भ में उसने पहली बार ऐसी चेतावनी दी है और दावा किया है कि ऐसे लक्षण दिखाई दे रहे हैं कि भारत एक खास धर्म के लोगों के जनसंहार की दिशा में बढ़ रहा है । इस संस्था की चेतावनी का असल कारण यह माना जा रहा है कि हरिद्वार में मुस्लिमों के नरसंहार के खुलेआम आह्वान के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं की गई । यही नहीं प्रदेश और केंद्र सरकार के किसी नेता ने इसके खिलाफ न तो कोई बयान दिया और न ही इसकी निंदा की ।

पता नहीं आपकी क्या राय है मगर कम से कम मुझे तो नहीं लगता कि भारतीय समाज इस कदर जहरीला हो गया है कि ऐसा कुछ वहशिया सोचे अथवा करे । रहा सवाल हमारे नेताओं का तो वे भी ऐसा सपने में भी नहीं सोच पाएंगे । बेशक उन्हें अंडे खाने का शौक है मगर मुर्गी का पेट फाड़ कर सारे अंडे निकालने की मूर्खता वे नहीं कर सकते । हालांकि उनकी सारी राजनीति हिंदू-मुस्लिम करके ही चलती है मगर अपने समाज को वे भली भांति समझते हैं । उन्हें पता है कि जहर उगल कर बेशक वोट मिल सकता है मगर समाज का बंटवारा वे नहीं करा सकते । सैंकड़ों साल के सौहार्द और गंगा-जमुनी तहजीब की जड़ें बेहद गहरी हैं और चंद नारों से उसे हिलाया नहीं जा सकता । वोटों का बंटवारा दिलों के बंटवारे में तब्दील नहीं हो सकता और चुनावी हो हल्ला तो कभी स्थाई हो ही नहीं होता । बेशक मुल्क में दंगे हुए हैं मगर फिर भी वह हमारे शहरों की स्थाई तस्वीर कभी नहीं बन सके । बवंडर थमते ही लोगबाग फिर मोहब्बत और खलूस से साथ रहना सीख जाते हैं । भविष्य को लेकर भी किसी ऐसी वैसी आशंका की जरूरत नहीं है मगर फिर भी सवाल लख टका है कि हमारे बारे में दुनिया ऐसा क्यों सोचने लगी है ? इसके जवाब में क्यों हम खुल कर नहीं कहते कि हमें बदनाम न करो । क्यों नहीं कहते कि भारत रवांडा नहीं है ? चलिए माना आप कुछ नहीं कहना चाहते मगर उन खुराफातियों पर तो लगाम कसिए जिनकी वजह से दुनिया भर में हमारी छीछालेदर हो रही है ? क्या हमारा नेतृत्व इतना भी नहीं कर सकता ? यदि नहीं , तो फिर झेलिए । आज जेनोसाइड वॉच मुंह पर तमाचा मार रहा है तो कल कोई अंतराष्ट्रीय संवैधानिक संस्था भी ऐसा ही कुछ करेगी ।

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