हाल चाल ठीक ठाक है
रवि अरोड़ा
मेरे कमरे से सड़क पर आता-जाता हर कोई दिखता है । आजकल काम-धाम कुछ है नहीं सो हर उस चीज़ पर भी निगाह जाती है जिसका कोई महत्व नहीं । यूँ भी आदमी जब फ़ुर्सत में हो तो अपना ही दूसरों का भी हिसाब लगाने लगता है । शायद यही वजह रही कि मैंने आज उन सब्ज़ी-फल वालों की गिनती की जो सुबह नौ से बारह बजे के बीच मेरे मोहल्ले में आये । देख कर हैरानी हुई कि ठेली, हाथ व ई रिक्शा पर सब्ज़ी व फल आदि बेचने बाईस लोग मेरे घर के सामने से गुज़रे । मुझे अच्छी तरह याद है की छः महीने पहले तक आधा किलो टमाटर भी लेने हों तो सेक्टर दस की मार्केट जाना पड़ता था । बच्चों की कोई खास फ़रमाइश हो तो दो-चार किलोमीटर की दौड़-धूप तय होती थी । हैरानी तो तब हुई जब देखा कि रेत का भुट्टा बेचने वाली एक ठेली भी घर के सामने से गुज़री । एक समय में सिहानी गेट और मनोहर टाकिज़ के अतिरिक्त ये कहीं नहीं मिलते थे । अब तो हापुड़ रोड पर कलेक्ट्रेट के सामने ही एक दर्जन ठेली वाले खड़े होते हैं ।
इत्तेफाकन शाम को गोविंद पुरम जाना हुआ । शास्त्री नगर चौक से कालोनी तक फल-सब्ज़ी की ठेलियाँ ही ठेलियाँ दिखाई पड़ीं । ख़ाली दिमाग़ को काम मिल गया और लगे हाथ ये ठेलियाँ ही गिन डालीं । पूरी 78 थीं । कई ग्रामीण भी अपनी भैंसा बुग्गी में सेब और मौसमी आदि बेचते मिले । इस इलाक़े में सेब तो दूर मौसमी भी नहीं उगती सो ज़ाहिर है कि मंडी से लाकर ही इसे बेच रहे होंगे । लगे हाथ दो चार फल विक्रेताओं से मिज़ाजपुर्सी भी कर डाली । सबसे मेरा एक ही सवाल था कि यह काम कब से कर रहे हो ? हैरानी हुई कि कोई भी इस धंधे में चार-छः महीने से पुराना नहीं था । मूलतः कोई पेंटर था तो कोई बढ़ई । कोई किसी फ़ैक्ट्री में पल्लेदार था तो कोई दिहाड़ी मज़दूर । लॉक़डाउन में काम छूटा तो पेट पालने को फल-सब्ज़ी बेचने लगे । ठेली भी किराये मिल जाती है और किसी दूसरे सब्ज़ी वाले की गारंटी दिला दो तो माल भी उधार मिल जाता है । परिवार चलाने को इससे बेहतर उन्हें कुछ और नहीं मिला तो लग गए लाइन में ।
उधर, पता चला है कि गोल मार्केट का एक व्यापारी बाज़ार के पैंतीस करोड़ रुपये मार कर परिवार सहित फ़रार हो गया है । कमेटी चलाने वाले भी कई लोग भूमिगत हैं । नौकरी और एजेंसी आदि दिलवाने के नाम लोगों को ठगने वालों की ख़बरें लगभग रोज अख़बारों में छपती है । सौ दो सौ रुपये के लिये भी लोग बाग़ एक दूसरे का सिर फाड़ रहे हैं । हत्याओं और आत्महत्याओं का भी अनवरत सिलसिला शुरू हो गया है । झपटमारी , लूट-खसोट और ठगी की वारदात आम हो चली हैं । सरकारी विभागों में रिश्वतों के दाम दोगुने हो गए हैं तो समाज में जिनकी ईमानदारी की क़समें खाई जाती थीं, वे भी थोड़ी-थोड़ी रक़मों के लिए बे-ईमान हो रहे हैं । अविश्वास की ऐसी बयार चली है कि कोई किसी पर विश्वास नहीं कर रहा । न कोई उधार रूपया अथवा माल दे रहा है और न किसी को मिल रहा है । पुरानी देनदारियों को चुकाने में लोगबाग़ हाथ खड़े कर रहे हैं । मकान और दुकान मालिकों को किराया नहीं मिल रहा । जो ज़्यादा दबाव बना रहे हैं उनकी प्रोपर्टी ख़ाली हो रही है । एक्सपोर्ट के ओर्डर लगभग पूरे हो गए हैं तो अब उद्योगों में पुनः छटनी शुरू हो गई है ।
चार दिन पहले घड़ी डिटर्जेंट वालों के एक सेल्समैन को सदरपुर के पास दिन दहाड़े क़ट्टा सिर पर लगा कर लूट लिया गया। मालिक भाजपा के नेता हैं फिर भी पुलिस ने रिपोर्ट नहीं लिखी । पुलिस सेल्समैन को हड़का रही है कि तूने शोर क्यों नहीं मचाया। मालिक का कहना है कि सिर पर तमंचा लगा हुआ हो तो भला कोई कैसे चिल्ला सकता है ? पुलिस का तर्क बेशक मूर्खतापूर्ण है मगर उसकी अपनी मुसीबत है । सारी रिपोर्ट लिख लें तो एक ही दिन में सबके बोरिया बिस्तर बँध जाएँगे । अब और क्या क्या बताऊँ ? जो हालत मेरे शहर की है , कमोवेश यही सूरते हाल पूरे मुल्क का है । कुल मिला कर हर कोई अच्छे दिनो के आनंद में है ।