साझे पहाड़-साझे समुंद्र
रवि अरोड़ा
अकेले भटकने की आदत के चलते एक बार फिर हरिद्वार, ऋषिकेश और देहरादून में था । इस बार का अनुभव कुछ अलग रहा । रिसॉर्ट व होटल मालिकों तथा प्रॉपर्टी डीलरों से बातचीत करने पर पता चला कि कोविड काल में पूरे उत्तराखंड की प्रॉपर्टी में आग लग गई है । देखने ही देखते वहां जमीनों के दाम कई गुना हो गए हैं । गंगा किनारे की प्रॉपर्टी तो एनसीआर से अधिक महंगी है । बड़े शहरों की भीड़ भाड़ से दूर लोगबाग पहाड़ों में पनाह ढूंढ रहे हैं । पहाड़ों में लगभग हर सड़क पर नए होटल और रिसोर्ट तो खुल ही रहे हैं साथ साथ गैर प्रांतीय आबादी भी वहां रिहाइश की गर्ज से पहुंच रही है । दिल्ली एनसीआर का धनाढ्य वर्ग सेकिंड होम की चाह में वहां जमीनें खरीद रहा है । बेशक वहां बाहरी आदमी सवा नाली यानी तीन सौ गज से अधिक जमीन नहीं खरीद सकता मगर वह हिंदुस्तानी ही क्या जिसके पास ऐसे कानूनो का तोड़ न हो । सो प्रॉपर्टी बाजार में बूम है ।
यह सब देख कर मैं थोड़ा हैरान हुआ कि अखबार तो हमें यह बताते रहते हैं कि उत्तराखंड में पलायन हो रहा है , यदि ऐसा है तो फिर लोगबाग क्यों वहां दौड़ रहे हैं ? खोजबीन करने बैठा तो पता चला कि बेशक बाहरी आदमी सुकून की चाह में पहाड़ों पर पहुंच रहा हो मगर स्थानीय आबादी तो वहां से उकताई ही पड़ी है । रोजगार का अभाव, पानी की किल्लत, सड़कों, स्वास्थ्य सुविधाओं और अच्छे स्कूल कालेजों की कमी लोगों को बड़े शहरों की ओर धकेल रही है । गांव के गांव खाली हो रहे हैं । सरकार भी मानती है कि प्रदेश के बारह सौ गांव आबादी विहीन हो चुके हैं । हालत की गंभीरता को देखते हुए सरकार को बकायदा पलायन आयोग का गठन करना पड़ा है । अजब हालात हैं । वहां का आदमी यहां आ रहा है और यहां का वहां जा रहा है ।
बेशक मैं क्षेत्रवाद का हिमायती नहीं मगर इस तरह के पलायन के कुछ अपने खतरे भी हैं, यह मानता हूं । सबसे बड़ा ख़तरा तो क्षेत्रीय विरासत, संस्कृति और भाषा के समक्ष खड़ा होना है । हालांकि ये खतरे भावात्मक हैं और इनके मुकाबले इसके लाभ बेहद ठोस हैं । सबसे बड़ा लाभ तो आर्थिक समानता, विकास और रोजगार के क्षेत्र में ही होता है मगर अफसोस उन पर इस मुल्क में चर्चा ही नहीं होती । विमर्श की कमान जिन्हे अपने हाथ में लेनी चाहिए वे तमाम राजनीतिक दल तो इसका लाभ उठाने में ही लगे हुए हैं और क्षेत्रीय भावनाओं को भड़का रहे हैं । पंजाब के चुनावों में मुख्यमंत्री चन्नी जब उत्तर प्रदेश व बिहार के भईया लोगों को गरियाते हैं तो साथ खड़ी प्रियंका गांधी ताली बजाती हैं । भाजपा नीत हरियाणा की सरकार सुप्रीम कोर्ट की परवाह न कर प्राइवेट सेक्टर की 75 फीसदी नौकरियों में स्थानीय निवासियों की अनिवार्यता की शर्त थोप देती है । मुंबई में यू पी बिहार के मजदूरों और टैक्सी वालों की मराठियों द्वारा पिटाई कोई नई बात नहीं है । वहां का सबसे बड़ा दल शिव सेना तो मराठी अस्मिता के नाम पर ही जिंदा है । हिंदी के विरोध के नाम पर उत्तरी भारतीयों का दक्षिण में जम कर तिरस्कार होता है । गोवा और पुद्दुचेरी में स्थानीय आदमी की साझेदारी के बिना कोई बाहरी आदमी व्यापार ही नहीं कर सकता । धारा 370 खत्म होने के बावजूद आज भी जम्मू कश्मीर में बाहरी आदमी मकान दुकान नहीं बना सकता । बाहरी आदमी को सहयोग न करने में बंगाली सबसे आगे रहते हैं । नंदी ग्राम जैसी घटनाएं इसकी मिसाल हैं । नॉर्थ ईस्ट में बसने का सपना तो हम आप देख ही नही सकते । अब बताइए क्या आपको नहीं लगता कि इस मुद्दे पर देश की स्पष्ट नीति हो और सभी राज्य उसका पालन करें । जब हम एक देश हैं , हमारा एक ही संविधान है , हमारे एक समान अधिकार हैं तो हमारे समुंद्र, पहाड़ और जमीन साझे क्यों नहीं ?