शरमाने की शर्त पर दाना
रवि अरोड़ा
दो दिन पहले किसी काम से दिल्ली गया था । वहां अनेक प्रमुख स्थानों पर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड सरकार के इलेक्ट्रिक बिल बोर्ड लगे नजर आए। बेशक ये सभी विज्ञापन इन सरकारों की योजनाओं और उपलब्धियों का बखान कर रहे थे और तमाम सरकारें ऐसा करती भी हैं मगर यह सवाल कचोट गया कि दिल्ली के नागरिकों के बीच यूपी उत्तराखंड सरकार के बखान की भला क्या तुक है ? तभी याद आया कि इसी सप्ताह पंजाब, छत्तीसगढ़ और राजस्थान सरकारों के भी तो पूरे पूरे पेज के विज्ञापन तमाम अखबारों में देखे थे । हो सकता है कि ये राज्य सरकारें कुछ अच्छा और नया कर रही हों और उसका प्रचार प्रसार करना चाहती हों मगर ये विज्ञापन हम दिल्ली और उत्तर प्रदेश वालों को क्यों दिखाए जा रहे हैं और वह भी करोड़ों रुपए खर्च करके ? कर्ज में डूबे राज्यों द्वारा गरीब जनता की गाढ़ी कमाई को यूं लुटाने की भला यह कौन सी नीति है ?
सोशल मीडिया के जमाने में अखबारों और टीवी चैनल्स पर अरबों रुपए लुटाने के मामले में सभी दल एक से बढ़ कर एक हैं। जिसकी जहां सरकार है, वहीं उसकी यह बंदरबांट है। कोढ़ में खाज यह है कि जो केंद्र सरकार इस मामले में नियामक संस्था है, वही इसमें सबसे आगे है। विगत 13 दिसंबर 2022 को लोकसभा में एक प्रश्न के उत्तर में सूचना एवम प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने बताया था कि साल 2014 में सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने आठ साल 10 महीने में 6491 करोड़ रुपया प्रचार पर खर्च किया है। इसमें 3230 करोड़ प्रिंट मीडिया और 3261 करोड़ रुपया इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर खर्च किया गया । यहां यह उल्लेखनीय है कि अपने दस साल के शासन में सरदार मनमोहन सिंह की दो सरकारों ने 3582 करोड़ रुपए ही इस मद में खर्च किए थे । मोदी सरकार की देखादेखी राज्य सरकारें भी गरीब जनता का टैक्स का पैसा अपने मुख्यमंत्री की बड़ी बड़ी तस्वीरें छपवाने में उड़ा रही हैं। पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड इस रेस में सबसे आगे खड़े हैं। जनता का पैसा कैसे लुटाया जा रहा है इसकी बानगी देखिए कि दिल्ली सरकार ने साल 2021 – 22 में उच्च शिक्षा एवं कौशल विकास गारंटी योजना शुरू की और उसके विज्ञापन पर 19 करोड़ रुपया खर्च किए जबकि इसका लाभ केवल दो छात्रों को दस दस लाख रुपयों का ही दिया गया । देश में ऐसी राज्य सरकारें आधा दर्जन से अधिक हैं जो सालाना पांच सौ करोड़ रुपया प्रचार प्रसार पर उड़ा रही हैं। एक सर्वे ने बताया कि पंजाब सरकार तो हर घंटे दो लाख साठ हजार इस मद में खर्च कर रही है। ऐसा नहीं है कि केवल सरकार में आते ही राजनीतिक दल प्रचार प्रसार पर पैसे उड़ाते हैं, चुनावों के दौर में भी खूब पैसे लुटाए जाते हैं। सेंटर फॉर मिडिया स्टडीज की एक रिपोर्ट बताती है कि साल 2019 के आम चुनावों में साठ हज़ार करोड़ रुपए खर्च किए गए जबकि 2104 के चुनावों में यह खर्च तीस हजार करोड़ था । अनुमान लगाया जा सकता है कि इस हिसाब से 2024 के चुनाव में कितने नोट उड़ेंगे।
यह अधूरा सत्य है कि हमारे नेता छपास रोगी हैं और मीडिया में अपनी बड़ी बड़ी तस्वीरें छपवाने को मरे जाते हैं। दरअसल प्रचार का बजट उनके मीडिया मैनेजमेंट का भी हिस्सा होता है। जो मीडिया संस्थान सरकार के पक्ष में जितनी अधिक खबरें दिखाता है, उसे उतना ही अधिक विज्ञापन दिया जाता है । सबको पता है कि विज्ञापन के बिना कोई मीडिया संस्थान एक दिन भी नहीं चल सकता और देश का सबसे बड़ा विज्ञापन दाता केन्द्र, राज्य सरकारें और राजनीतिक दल ही तो हैं। अब पानी में रह कर भला मगरमच्छ से कौन बैर ले। अब ये तमाम बातें उन लोगों को समझनी बेहद जरूरी हैं जो मीडिया की स्वतन्त्रता पर बड़े बड़े भाषण देते हैं और टीवी चैनल्स और अखबारों के कंटेंट पर सवाल करते हैं। यह तथ्य आईने की तरह साफ हो चुका है कि सरकारी विज्ञापनों को लेकर जब तक कोई पारदर्शी और किफायती योजना नहीं आती, मीडिया की स्वतन्त्रता की कल्पना बेमानी है। कहावत है कि मुंह खाए नजर शरमाए मगर यहां तो नज़र शरमाने की शर्त पर ही मुंह को दाना मिलता है।