विकास के हाथों में विनाश की डोर

रवि अरोड़ा
दो महीने के बाद पहाड़ पर आना हुआ । इस बार भी ठिकाना था उत्तराखंड का खूबसूरत कस्बा चंबा। देख कर कलेजा मुंह को आ गया कि पहाड़ों की हालत उससे कहीं अधिक बदतर है जितनी खबरों में बताई जा रही है । जगह जगह पहाड़ टूटने से हिमाचल प्रदेश में हुई तबाही की तो फिर भी कुछ कुछ जानकारी मिलती रही मगर उत्तराखंड की अधिकांश खबरें न जानें क्यों छुपी ही रहीं। इस बार मानसून में हिमालय पर्वत हर जगह दरका है । कहीं ज्यादा तो कहीं कम। हिमाचल प्रदेश का जितना नुकसान हुआ है, उससे उबरने में राज्य को वर्षों लगेंगे मगर जन और आर्थिक हानि के चलते पसीने उत्तराखंड को भी यकीनन आ जाएंगे ।

ऋषिकेश से चंबा मात्र 64 किलोमीटर दूर है । राष्ट्रीय राज मार्ग 94 इन दोनो इलाकों को जोड़ता है । इस साल मानसून में कई बार पहाड़ गिरने से इस मार्ग को बंद करना पड़ा । रविवार को इस छोटे से मार्ग पर कम से कम पचास जगह पहाड़ दरका मैंने देखा । पहाड़ का मलबा जगह जगह सड़क के किनारे पड़ा था और तमाम वाहन उससे बच कर गुजर रहे थे । हमारे निकलने के बाद पता चला कि फिर पहाड़ से बड़ा पत्थर गिर गया और पुनः थोड़ी देर के लिए राज मार्ग बंद कर दिया गया । राज्य की यह इकलौती सड़क नहीं है जिस पर तबाही के निशान हैं । भारी वर्षा के कारण इस रविवार को ही राज्य के विभिन्न इलाकों से ऐसे समाचार मिले । इस मानसून की बारिश से अब तक 3093 सड़कों और 91 पुलों का नुकसान हो चुका है और इसकी कीमत एक हजार करोड़ रुपयों से अधिक बताई गई है। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग की एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड का 72 प्रतिशत यानी 39 हजार वर्ग किमी क्षेत्र भूस्खलन से प्रभावित है। बारिश से राज्य में अब तक 90 लोग मौत के मुंह में समा चुके हैं जबकि 50 लोग घायल हुए हैं। वहीं 16 लोग अब भी लापता हैं। इनमें से 80 प्रतिशत से अधिक मौतें भूस्खलन के कारण ही हुई हैं।

कहना न होगा कि हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के पहाड़ बेबस हैं और बढ़ती आबादी और पर्यटकों की लगातार बढ़ती आवाजाही से बोझिल होकर टूटने लगे हैं । हालात ये हैं कि जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने अकेले हिमाचल के ही 17 हजार से ज्यादा स्थानों पर लैंडस्लाइड की चेतावनी दे रखी है । उधर पर्यावरणविद् अनियोजित विकास को तबाही का असली जिम्मेदार मानते हैं । वे बार बार दोहराते हैं कि विकास ऐसा होना चाहिए जो विनाश का कारण न बने । बकौल उनके उत्तराखंड में अनेक पहाड़ ऐसे हैं जहां सड़क नहीं बननी चाहिए मगर बनाई जा रही हैं। पहाड़ों पर निर्माण में हम जिस तरह की तकनीक का प्रयोग कर रहे हैं वह बेहद हानिकारक है । सड़कें पहले भी बनती थीं मगर तब कुदाल और फावड़े का प्रयोग किया जाता था । महीनों भर की मशक्कत से बामुश्किल पांच किलोमीटर की सड़क बन पाती थी मगर अब बड़ी बड़ी हाईटेक मशीनों से पहाड़ों को काटा जा रहा है । ये महीने जितना पहाड़ काटती हैं उससे कहीं अधिक आसपास के पहाड़ियों को कमजोर करती हैं। इन मशीनों के प्रयोग से अब एक महीने में ही पचास किमी सड़क बनाई जा रही है । जो त्रासदी की असली वजह बन रही है । उधर , तमाम सर्वे और रिपोर्ट बता रही हैं कि हमारे पहाड़ उतना बोझ नहीं झेल पा रहे जितना उन पर लादा जा रहा है। हिमाचल की बर्बादी का असली कारण जहां अंधाधुंध निर्माण है तो उत्तराखंड में तबाही बेतहाशा बनाई जा रही सड़कों के कारण ही हैं। स्थानीय लोग बता रहे हैं कि चार धाम की यात्रा को सुगम बनाने के लिए निर्माणाधीन राष्ट्रीय राज मार्ग का इस बार की तबाही से सीधा संबंध है। पहाड़ अधिकतम इस सड़क के आसपास ही दरके हैं। स्थानीय लोगों की यह आशंका कितनी वाजिब है और कितनी नहीं यह तो नहीं कहा जा सकता मगर इतना जरूर लगता है कि इसका पता तो लगाया ही जाना चाहिए । सड़कों का निर्माण यदि भूस्खलन को दावत दे रहा है तो ठहर कर पुनर्विचार तो करना ही चाहिए । पता तो लगना ही चाहिए कि जिस विकास के नाम पर हम अपनी मूछों को ताव दे रहे हैं, कहीं वही तो हमारी बर्बादी का असली कारण नहीं बन रहा ?

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