लुगदी लोग-लुगदी फैसले
रवि अरोड़ा
साल 1975 में सनातन धर्म इंटर कॉलेज में नवीं क्लास में नया नया दाखिला लिया था। उन्हीं दिनों कॉलेज के पास एक नई दुकान खुली- फैंसी बुक स्टोर । एक अनूठे प्रयोग के रूप में इस दुकान पर किताबें किराए पर भी मिलती थीं। स्कूली पढ़ाई से संबंधित नहीं वरन मनोरंजन साहित्य यानी सड़क छाप माने जाने वाले उपन्यास । गुलशन नंदा, ओम प्रकाश शर्मा, वेद प्रकाश शर्मा, रानू, सुरेंद्र मोहन पाठक और कर्नल रंजीत जैसे लेखकों से परिचय इसी दुकान के मार्फत हुआ । इन उपन्यासों का ऐसा नशा सिर पर सवार हुआ कि घर वालों के लाख टोकते पर भी मैं इनका लती हो गया । हिंदी का गंभीर साहित्य क्या होता है, कम से कम मैं तो यह तब तक नहीं जानता था। कई साल बाद जब हिंदी साहित्य में एमए करने शंभू दयाल कॉलेज पहुंचा, तब जाकर पता चला कि टाइम पास साहित्य और समाज, दुनिया और खुद को जानने की समझ पैदा करने वाले साहित्य में क्या अंतर होता है ? प्रेमचंद का गोदान और हजारी प्रसाद द्विवेदी के पुनर्नवा जैसे उपन्यास और जय शंकर प्रसाद के कामायनी जैसे महाकाव्य कोर्स में पढ़ने और समझने को मिले, तब जाकर ही आंख खुली । बस फिर क्या था, गम्भीर साहित्य से ऐसा नाता जुड़ा जो आजतक कायम है। लुगदी साहित्य के सैंकड़ों उपन्यास पढ़ने और जीवन के हजारों घंटे इनके साथ बिताने के बावजूद स्मृतियों में अब उनका नामोनिशान तक नहीं है और उधर गम्भीर साहित्य आज भी जीवन में लाइट हाउस सा मददगार बना हुआ है। फिलवक्त्त यह मुद्दा इसलिए कि इन दिनों एनसीईआरटी और तमाम विश्वविद्यालयों के स्लेबस से जिस प्रकार सुमित्रानंदन पंत, मीरा बाई, कबीर, मुक्तिबोध और फिराक गोरखपुरी जैसों महान रचनाकारों को हटा कर वर्दी वाला गुंडा जैसा सड़क छाप साहित्य लिखने वाले वेद प्रकाश शर्मा, गुलशन नंदा और रानू जैसों को शामिल किया जा रहा है, मन इसके कारण तलाशने को बेचैन हो उठता है।
आप इस विषय में क्या राय रखते हैं यह तो मुझे नहीं मालूम मगर मेरा स्पष्ट मानना है कि हम एंटी इंटेल्लेक्टयूअलिज्म यानी अबौद्धिकता के युग में प्रवेश कर चुके हैं। सतहीपन समाज के हर हिस्से में साफ नजर आ रहा है। अव्वल तो अच्छा साहित्य लिखा नहीं जा रहा और यदि थोड़ा बहुत लिखा भी जा रहा है तो उसका पाठक नदारद है। उधर, धर्म अब निजी मामला नहीं वरन सड़क पर दिखाने की कोई शय हो चले हैं। मीडिया सत्ता के तलवों के नीचे खुद को सर्वाधिक सुरक्षित समझने लगा है। कार्य पालिका ने राजनीतिक दलों से सांठगांठ को ही जैसे अपना धर्म समझ लिया है। स्कूल कालेज डिग्रियां बांटने वाली दुकानें बन गए हैं तो शिक्षक कुंजी से पढ़ाना अपना बुनियादी हक समझते हैं। न्याय पालिका का हाल भी किसी से नहीं छुपा । नेता दुनिया भर में ट्रंप जैसे दिख रहे हैं । हमारे अपने मुल्क में कभी नेहरू और अटल बिहारी जैसे नेता थे जिनके फैसले ही नहीं वरन एक एक शब्द भी नपा तुला होता था । अब झूठे और घमंडी लोग सत्ता पर काबिज हैं। राजनीति इतिहास में भी घुस आई है और पॉलिटिकल एजेंडे के तहत मुफीद इतिहास तैयार किया जा रहा है। अब आप ही बताइए जब चहुओर स्तरहीनता ही स्तरहीनता है तो ऐसे में पढाई का स्तर और उसका स्लेबस भी कब तक टिकता । कोई शक नहीं कि इस किस्म का फैसला जिन लोगों ने लिया है, उनकी मानसिकता भी यकीनन सड़क छाप ही रही होगी। उनका अनकहा तर्क भी शायद यही होगा कि जब हम लुगदी, हमारे इर्द गिर्द का सब कुछ लुगदी लुगदी तो भला साहित्य भी अब लुगदी ही क्यों न हो ?