लफ्फाजी की कोई हद तो तय हो जी

रवि अरोड़ा
मेरा एक मित्र आजकल कुछ ज्यादा ही घर घुस्सू हो गया है। जरूरी कार्यक्रमों में भी नहीं पहुंचता। पूछने पर पहले सौ बहाने लगाता है और फिर हंस कर स्वीकार कर लेता है टेलीविजन पर फीफा वर्ल्ड कप मैच देख रहा था । खोज ख़बर ली तो पता चला कि मेरे कई अन्य परिचित भी फुटबॉल का महा संग्राम देखने में आजकल मशगूल हैं। जानकर बड़ी हैरानी हुई कि पागलपन की हद तक क्रिकेट के दीवाने इस मुल्क में क्या अभी भी फुटबॉल के चाहने वाले लोग बाकी हैं ? यदि हैं तो फिर फुटबॉल खेलते हुए कोई क्यों नहीं दिखता ? क्या मैच देखने भर का ही है यह जुनून ?
मानें तो यह बेहद शर्म की बात है और न मानें तो कुछ भी नहीं कि अगले कुछ महीनों में दुनिया की सबसे बड़ी आबादी बनने जा रहा हमारा देश फीफा वर्ल्ड कप खेलना तो दूर क्वालीफाई भी नहीं कर पाता । कहने को तो हम कहते हैं कि भारत में पहला फुटबॉल मैच सन 1802 में खेला गया और 1893 से हमारा अपना फुटबॉल महासंघ है मगर इसका परिणाम क्या है ? बेशक 1948 से हम एशियाई फुटबॉल महासंघ के भी सदस्य हैं मगर क्या कारण है कि फुटबॉल के अंतरराष्ट्रीय संघ ( फीफा ) में हमारी रैंकिंग 104वीं है ? एक बार तो यह गिर कर 173वें स्थान पर भी आ चुकी है। कुल जमा एक बार ही हम 1950 में फीफा वर्ल्ड कप क्वालीफाई कर पाए मगर तब भी हम कोई मैच इसलिए नहीं खेल सके कि हमारे खिलाड़ियों के पास जूते तक नहीं थे और फेडरेशन ने नंगे पांव हमें खिलाने से मना कर दिया । पिछले 72 सालों में तरक्की के तमाम दावों के बीच आज भी हमारी स्थिति यह है कि हमारे पास फीफा की नियमवालियों के अनुरूप खेल के मैदान तक नहीं हैं ।
फुटबॉल के मामले में भारत हमेशा से फिसड्डी रहा हो , ऐसा भी तो नहीं है। सन 1911 में भारतीयों के मोहन बागान क्लब ने अंग्रेजी फ़ौज की रेजिमेंटल टीम को एक बड़े मैच में हरा कर पूरे बंगाल में धूम मचा दी थी । बागान की जीत ने यह मिथक भी तोड़ा कि अंग्रेज अजेय हैं और उन्हें किसी भी मामले में हराया नहीं जा सकता । इतिहासकार बताते हैं कि देश में स्वतंत्रता की अलख जगाने में इस मैच की भी भूमिका थी। बंगाल में फुटबॉल की सौ साल पहले जितनी दीवानगी तो अब नहीं है मगर केरल, बंगाल और गोवा में आज भी थोड़ा बहुत फुटबॉल खेला जाता है। बंगाल में फुटबॉल का नशा एक दौर में लोगों के सर इस कदर चढ़ कर बोलता था कि दो बड़ी टीमों मोहन बागान और ईस्ट बंगाल के फैन एक दूसरे के यहां शादी तक नहीं करते थे । बेशक इतनी दीवानगी की अब कोई जरूरत नहीं है मगर फिर भी थोड़ी बहुत कुछ तो हो । आज दो सौ देशों के दो सौ करोड़ लोग टेलीविजन से चिपके मैच देख रहे हैं और हम खुद को विश्व गुरू बताने के बावजूद चुपचाप घर बैठे हैं। क्या सिर्फ यह दावा करने से ही काम चल जाएगा कि भारत ने ही दुनिया को फुटबॉल दिया और भगवान कृष्ण अपने सखाओं के साथ यमुना किनारे जिस गेंद से खेलते थे, वह फुटबॉल ही थी। लफ्फाजी की कोई हद तो तय हो जी ।

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