मॉरीशस

रवि अरोड़ा

मॉरीशस से मेरा कभी कोई सम्बंध नहीं रहा । कभी वहाँ गया भी नहीं । फिर भी पता नहीं क्यों आजकल मॉरीशस मेरे ख़यालों पर छाया हुआ है । हाल ही में मॉरीशस के वरिष्ठ हिंदी साहित्यकार और वहाँ के राष्ट्रपति के पूर्व सलाहकार राम बरन जी से मुलाक़ात हुई और अफ़्रीका के पास के इस द्वीप मॉरीशस के बारे में विस्तार से जाना । रही सही कसर उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और सांसद डॉक्टर रमेश चंद्र पोखरियाल निशंक जी ने अपनी पुस्तक ‘ मॉरीशस की स्वर्णिम स्मृतियाँ ‘ भेंट कर पूरी कर दी । अभी इस पुस्तक से गुज़र ही रहा था कि मॉरीशस के एक मात्र व्यक्ति जिनके बाबत कुछ जानता था उनकी मृत्यु की ख़बर आ गई । हिंदी के प्रसिद्ध लेखक अभिमन्यु अनत मॉरीशस के ही तो थे । अभिमन्यु अनत , राम बरन और निशंक जी जैसे लोगों के साहित्य को जानो तो पता चलता है कि भारत सिर्फ़ उतना ही नहीं है , जितना दुनिया के नक़्शे पर हम जानते हैं । भारतीयता की ख़ुशबू तो दूर दूर तक फैली है । मगर क्या यह ख़ुशबू अपने ही घर भारत में अब महफ़ूज़ है ? यह ख़ुशबू जो चौथाई दुनिया तक पहुँची क्या उसे धर्म की झोली में ज़बरिया क़ैद करने की प्रवृति से इतर हम इसे केवल सांस्कृतिक धरोहर के रूप में नहीं संभाल सकते ? बुद्ध जिन्हें आधी दुनिया ने अपना मार्गदर्शक माना , हमारे लिए ग़ैर क्यों हो गए ? मॉरीशस के बहाने इन तमाम सवालों से जूझने का अब मन हो रहा है ।

अभिमन्यु अनत जी के लघु उपन्यासों को पढ़ कर कोई कह नहीं सकता कि उनका परिवेश भारतीय नहीं है । राम बरन बताते हैं कि उनके मुल्क की बड़ी आबादी के घर में तुलसी और गणेश जी की पूजा होती है । दर्जनों साहित्यिक रचनाओं के लेखक निशंक जी अपनी पुस्तक में बताते हैं कि राम, रामायण और गंगा आज भी मॉरीशस की संस्कृति का प्रमुख हिस्सा हैं । कई मित्र श्रीलंका , इंडोनेशिया , म्यांमार और कम्बोडिया होकर आए हैं और बताते हैं कि जगह जगह भारतीयता बिखरी नज़र आती है । पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ते आए हैं जापान, वियतनाम और चीन में भी बहुत कुछ भारत जैसा है । थाईलैंड में सैंकड़ों मंदिर और बैंकॉक के हवाई अड्डे पर समुद्र मंथन की हमारी पौराणिक गाथा के विशाल स्टैचू का मैं भी गवाह हूँ । मलेशिया में कार्तिकेय की सैंकड़ों फ़ुट ऊँची मूर्ति और उनका मंदिर भी स्मृतियों में हैं । नेपाल में अपने मुल्क से ज़्यादा मंदिर नज़र आए तो गल्फ़ में हिंदी में बात करने वाले अधिक दिखे । पाकिस्तान और बांग्लादेश तो हमारी संस्कृति का अंग ही हैं मगर दूर सिंगापुर , ब्रिटेन और कनाडा जैसे मुल्कों में भी भारत किसी ना किसी रूप में मौजूद है ।हैरत है कि भारत के बाहर का भारत अपने भीतर भारतीयता को हमसे अधिक संजोये हुए है । दर्जनों देशों में रामलीलाएँ होती हैं तो दुनिया की एक तिहाई आबादी महाभारत की कथाओं से किसी ना किसी रूप में जुड़ी है । कहीं गंगा तालाब है तो कहीं सरयू जैसी भारतीय नामों वाली नदियाँ हैं । कहीं नोटों पर तो कहीं डाक टिकियों पर हमारे देवी देवता हैं । कोई मुल्क अपने पूर्वज हमारे पौराणिक पात्रों में खोजता है तो कोई अपनी जड़ें हिंदुस्तान में ही बताता है ।

सवाल यह है कि भारत से बाहर का भारत हमसे जो जुड़ाव महसूस करता है क्या उसे हम संभाल पा रहे हैं ? आख़िर एसा क्या हुआ कि एक समान संस्कृति के बावजूद अनेक देश हमारे दुश्मन हो गए अथवा दुश्मनों के खेमे में जा बैठे ? अपने जैसे देशों से सांस्कृतिक आदान-प्रदान प्रगाढ़ करने के लिए हम कर क्या रहे हैं ? सबसे बड़ा सवाल आधुनिक दिखने को होड़ में क्या हम अपनी नदियों , पौराणिक गाथाओं , रीति रिवाज , खानपीन, पहनावे और आचार-विचार को भी सहेज पाए हैं , जिनसे जुड़ाव दुनिया महसूस करती है ? कहीं एसा तो नहीं हो रहा कि भारत से अब भारत कहीं गुम हो रहा है अथवा बुद्ध की तरह परदेसी होने की राह पर चल दिया है ? जवाब तो ढूँढना पड़ेगा ।

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