मैं नहीं माखन खायो

रवि अरोड़ा

गौरी लंकेश को मैं पहले से नहीं जानता था । अपने अल्पज्ञान की वजह से उनका नाम भी कभी नहीं सुना था । विगत पाँच सितम्बर को बंगलूरू में हुई उनकी हत्या के बाद ही पता चला कि इस नाम की कोई नामी गिरामी पत्रकार भी थीं । सच कहूँ तो उनकी हत्या की ख़बर सुन कर मेरे भीतर कोई ख़ास प्रतिक्रिया भी नहीं हुई थी । आए दिन बुरी ख़बरें पढ़ने , देखने और सुनने से यूँ भी मन इतना कठोर हो गया है कि आसानी से शोक में नहीं आता । मगर लंकेश की हत्या के बाद सोशल मीडिया पर जो हज़ारों-लाखों हत्यारों की फ़ौज निकली , उसे देख कर मन की सारी बर्फ़ पिघल गई । भद्दी-भद्दी गालियाँ , अश्लील कमेंट्स और उन्हें देशद्रोही ठहराने का एसा अनवरत सिलसिला शुरू हुआ जो ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा । सिर्फ़ लंकेश ही नहीं उनकी हत्या पर शोक व्यक्त करने वालों को भी देशद्रोही ठहराया जा रहा है । संज्ञा दी जा रहा है कि कुतिया मर गई और पिल्ले बिलबिला रहे हैं । अरे , यह क्या हो रहा है ? लाशों के इर्दगिर्द ख़ुशी से नाचने की संस्कृति हमने कब से विकसित कर ली ? जिस धर्म में मृत्यु के पश्चात शत्रु की भी निंदा ना करने की रीति-नीति रही हो , वहाँ एक वृद्ध महिला की हत्या पर नफ़रत की इतनी उल्टियाँ ? और यह सब कुछ सिर्फ़ इस लिए कि वह एक ख़ास विचारधारा की समर्थक थीं और भाजपा और आरएसएस के ख़िलाफ़ लिखती थीं ? यदि इन सब सवालों पर आपका उत्तर हाँ में है तो फिर ठीक है मैं भी स्वीकार करता हूँ कि मैं भी उन पिल्लों की जमात में शामिल होना चाहता हूँ और अब जी भर के बिलबिलाने का मन है । अब आप बताइए कि क्या बिलबिलाने की इजाज़त भी मुझ जैसों को मिलेगी अथवा इसके लिए भी मुझे एक महिला की लाश के इर्दगिर्द भेड़ियों की तरह हुआं हुआं कर नाच रहे लोगों से अनुमति लेने की ज़रूरत पड़ेगी ?

जानकारियाँ जुटाईं तो पता चला कि कन्नड़ भाषा में वर्ष 1980 में पी लंकेश द्वारा महात्मा गांधी के अख़बार हरिजन की तर्ज़ पर एक अख़बार की शुरूआत की गई थी । नाम है लंकेश पत्रिके । उनकी मृत्यु के बाद उनकी पुत्री गौरी इसका सम्पादन कर रही थीं । पिता की तरह गौरी भी जाति प्रथा , कुरीतियाँ , सामाजिक भेदभाव और महिलाओं के साथ हो रही ग़ैर बराबरी के ख़िलाफ़ खुल कर लिखती थीं । ख़ास बात यह है कि यह समाचारपत्र एक रुपए का भी विज्ञापन नहीं लेता और केवल सदस्यता शुल्क के दम पर इसकी एक लाख प्रतियाँ छपती हैं । अपनी विचारधारा के अनुरूप लिखते हुए हिंदुत्व के नाम पर राजनीति करने वाले भी अक्सर लंकेश के निशाने पर रहते थे । स्थानीय भाजपा नेताओ ने उनके ख़िलाफ़ मान हानि के कई मुक़दमे भी दर्ज कर रखे थे तथा उन्हें आए दिन जान से मारने की धमकियाँ भी मिलती रहती थीं । हालाँकि सत्ता प्रतिष्ठान से उनका टकराव फिर भी बना रहता था । कुछ लोग कहते हैं कि उनके नक्सलियों से सम्बंध थे मगर उनके परिवार के लोग ही बताते हैं कि कई बार नक्सलियों से भी उन्हें धमकियाँ मिली थीं । उनके द्वारा आरएसएस के ख़िलाफ़ ज़हर उगलने के आरोपों के तहत कहा जाता है कि केरल में संघ और भाजपा नेताओं की हत्या को उन्होंने केरल के सफ़ाई अभियान की संज्ञा दी थी । जबकि सच्चाई यह है कि उन्होंने केवल केरल के काउंटर करेंट अख़बार के एक कार्टून को शेयर किया था जिसमें बाली वामन अवतार को उठा कर फेंक रहे हैं और शीर्षक है स्वच्छ केरलम । यह कार्टून बाली को प्रभु और वामन अवतार को छल करने वाला मानने वाली केरल की भावनाओं को लेकर था । इस कार्टून के अतिरिक्त गौरी पर जो भी आरोप आजकल सोशल मीडिया पर लग रहे हैं , वह कोरी बकवास हैं और उनकी कट्टर विरोधी कर्नाटक की भाजपा इकाई ने भी उन पर कभी एसे आरोप नहीं लगाए । गौरी के चाहने वाले कह रहे हैं कि उनकी हत्या प्रोफ़ेसर दाभोलकर, पानसारे और प्रोफ़ेसर कुलबर्गी की हत्या की कड़ी है । कर्नाटक के भाजपा विधायक जीवराज के इस बयान से इन आरोपों को और बल मिलता है जिसमें वह कह रहे हैं कि गौरी भाजपा और आरएसएस के ख़िलाफ़ ना लिखतीं तो आज ज़िंदा होतीं । दरअसल अभी तक कोई नहीं जानता कि लंकेश की हत्या किसने की । एसआईटी की बारह सदस्यीय टीम उनका पता लगाने में जुटी है । मगर जिस तरह से मरने के बाद गौरी का चरित्र हनन हिंदूवादी संघटनों और उनके पैरोकारों द्वारा किया जा रहा है और उनकी हत्या से इनकार भी किया जा रहा है , वह कुछ कुछ शक तो पैदा करता ही है कि कहीं यह एसा तो नहीं जैसे मुँह पर माखन लिपटे कन्हैया कहें- मैया मोरी मैं नहीं माखन ख़ायो ।

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