मी लार्ड का इक़बाल बुलंद हो
रवि अरोड़ा
आज के अख़बार आपने भी देखे होंगे । लगभग सभी अख़बारों में पहले पेज से लेकर आख़िरी पेज तक सुप्रीम कोर्ट की ही ख़बरें थीं । देख कर दिल ख़ुश हुआ कि आज के दौर में जब तमाम सरकारें निर्मम होती जा रही हैं एसे में कोई तो है जिसे आम आदमी का दुःख दर्द दिखाई दे रहा है । साफ़ नज़र आया कि सुप्रीम कोर्ट की हर मामले पर निगाह है और याचिका दायर हो अथवा नहीं , समस्याओं का वह स्वतः संज्ञान भी ले रही है । हालाँकि हैरानी भी हो रही है कि जिन जजों की पूरी शिक्षा और काम करने की पद्धति केवल गवाह और सबूतों तक ही महदूद रहती है , वे इतने संवेदनशील हो रहे हैं और जिन नेताओं को हमने अपने सुख-दुःख के लिये चुना वे कैसे अभी तक पत्थरदिल बने बैठे हैं ? कोरोना संकट के इस दौर में यदि सरकारें कुछ ठोस कर रही होतीं तो क्यों सुप्रीम कोर्ट गरमियों की छुट्टियों के बावजूद जन सरोकारों से जुड़े मामलों की रोज़ाना सुनवाई करती ? लखटका सवाल यह भी है कि हमने वोट किसे दिया था राजनीतिक दलों को या सुप्रीम कोर्ट को ? सभी संवेदनशील मामलों में फ़ैसले यदि सुप्रीम कोर्ट को ही लेने हैं तो इन तमाम सरकारों की आख़िर ज़रूरत ही क्या है ?
हो सकता है आपको मेरी यह बात कुछ असंवैधानिक लग रही हो और आप सोचें कि मैं लोकतांत्रिक व्यवस्था को ही नहीं समझता । यह भी हो सकता है कि आप मुझे विधायिका , कार्यपालिका और न्यायपालिका के कार्य विभाजन पर भाषण भी पिलायें । आप बेशक एसा कीजिये मैं आपके प्रयासों और मेरे प्रति आपकी इस राय को चुनौती नहीं दूँगा मगर आपको एक ही दिन की सुप्रीम कोर्ट की कार्रवाई अवश्य याद दिलाना चाहूँगा । शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने लाशों की बेक़द्री पर दिल्ली सरकार को फटकार लगाई और कहा कि अस्पतालों में हालात भयावह है तथा मरीज़ों से जानवरों जैसा बर्ताव किया जा रहा है । कोर्ट ने इस मामले में केंद्र, दिल्ली, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु राज्य सरकार को नोटिस भी जारी किया। नोयडा में सेंटर की बजाय लोगों को घर में कवारंटीन ही करने सम्बंधी सवाल जवाब स्थानीय प्रशासन से किये । संकट के समय में डाक्टरों को वेतन न देने को सबसे बड़ी अदालत ने युद्धकाल में फ़ौजी को वेतन न देने जैसा बता कर तुरंत रुका भुगतान करने को कहा । उद्योगों में मज़दूरों को लाक़डाउन समय के भुगतान सम्बंधी श्रम विभाग को आवश्यक निर्देश भी दिये गये । तमाम एयरलाईंस से कहा गया कि वे रद्द टिकिटों का क्रेडिट नोट कम से कम दो साल के लिए उपभोक्ता को दें । साथ ही साथ सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से यह भी स्पष्ट करने को कहा कि बैंक की किश्त जमा करने में जो छः महीने की मोहलत दी गई है , उसका ब्याज तो उपभोक्ताओं से नहीं लिया जाएगा । इसी तरह के कुछ और आदेश एक ही दिन में शीर्ष अदालत द्वारा दिए गये । वैसे प्रतिदिन जन सरोकारों के एसे ही फ़ैसले सर्वोच्च न्यायालय में हो रहे हैं । अब आप बताइये कि क्या यह सभी काम सरकारों को पहले ही नहीं करने चाहिये थे ? मामलों में अदालत को दख़ल देने की आख़िर ज़रूरत ही क्यों पड़ी ?
सवाल यह भी उठता है कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पारित करने के बाद भी तो सरकारों को इन आदेशों का अनुपालन करना होगा फिर पहले क्यों नहीं उन्होंने इस दिशा में सोचा ? सभी जान गये हैं कि देश में जो वर्तमान संकट है उसकी वजह महामारी से अधिक केंद्र सरकार के ग़लत फ़ैसले हैं । बड़ी बड़ी बातें करने वाली दिल्ली जैसी राज्य सरकारें भी पूरी फ़ेल हुई हैं । मोहल्ला क्लीनिक जैसे आइडिये से शोहरत हासिल करने वाली केजरीवाल सरकार स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में इतनी निकम्मी साबित होगी इसका अनुमान तो किसी को भी नहीं था । उधर देश भर से ख़बरें आ रही हैं कि चहुँओर प्रशासनिक मशीनरी भी केवल अपनी खाल बचाने मे लगी है । स्वयं को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहने वाला मीडिया भी सिर्फ़ वही बता रहा जो सरकारें उसे बताने को कहती हैं । शायद यही वजह है कि हर तरफ़ से निराश आम आदमी अब आस भरी निगाहों से अदालतों की ओर देख रहा है । यूँ भी जब न्यायपालिका हमारे लोकतंत्र का एक मजबूत स्तम्भ है तो लोगों की इस आस को ग़ैरवाजिब भी कैसे कहें । अफ़सोस तो केवल उनका है जो वक़्त पर दग़ा दे रहे हैं । शायर साक़िब लखनवी ठीक ही कहते थे- बाग़बाँ ने आग दी जब आशियाने को मिरे ,जिन पे तकिया था वही पत्ते हवा देने लगे ।