भीड़
रवि अरोड़ा
भीड़ शब्द मुझे बहुत डराता है । क्या करूँ भीड़ के हाथों कुछ अच्छा होने की ख़बर भी तो नहीं मिलती । अब तो आलम यह है कि भीड़ कुछ अच्छा करने को भी जुटे तो मन घबराता है । रविवार को दिल्ली में राम मंदिर के समर्थन में हुईं धर्म सभा में दूर दूर तक आदमी ही आदमी दिखा । हाल ही में बुलंदशहर में हुई तीन दिवसीय तब्लीगी इज्तमा में भी लाखों लोग जुटे । बुलन्दशहर में ही गौवंश के अवशेष मिलने पर एक अन्य क़िस्म की भीड़ एकत्र हुई और उसने एक पुलिस इंस्पेक्टर समेत दो लोगों की जान ले ली । बेशक यह तीनो तरह की भीड़ एक दूसरे से भिन्न थी मगर यह तो तय है कि इन तीनो तरह की भीड़ में समान विचारों वाले लोग थे । यह तो मैं भी समझता हूँ कि समान विचार वाला व्यक्ति अपना सा लगता है और उसका हिस्सा बन कर हम एक दूसरे को निर्देशित करने का अधिकार भी सहज पा लेते हैं ।एक कहता है यह करो तो हज़ार वही करने लगते हैं । मगर सवाल यह है कि यह ‘एक’ कौन होता है ? कहाँ से आता है यह ‘एक’ ? आख़िर मंशा क्या होती है इस ‘एक’ की ? यही सब सोचते सोचते आज बुरी तरह सिर दर्द हो रहा है ।
तब्लीगी इज्तमा का विचार कहाँ से आया मैं नहीं जानता । इस्लाम में भी इसे लेकर कोई दिशा निर्देश नहीं हैं । फिर एसा क्या है कि लाखों अथवा करोड़ों लोग एक साथ एक जगह जुटने लगे हैं ? जानकार बताते हैं कि पहली बार सन 1944 में भोपाल में तब्लीगी इज्तमा हुआ । एसे ही इज्तमा पाकिस्तान के रावलपिंडी और बांग्लादेश के टोंगी में भी होते हैं । इस तब्लीगी इज्तमा में केवल दीन की बातें होती हैं और अल्लाह व रसूल की चर्चा होती है । हालाँकि बुलन्दशहर का तब्लीगी इज्तमा सफलता पूर्वक सम्पन्न हो गया और अकीदतमंद सकुशल अपने अपने घरों को लौट गए मगर मेरी चिंता अभी भी बनी हुई है । मैं यह सोच सोच कर ख़ौफ़ज़दा हूँ कि इतनी बड़ी भीड़ में यदि कोई अफ़वाह की चिंगारी छोड़ देता तो क्या होता ? क्या हमारा तंत्र इतना महबूत है कि इतनी बड़ी भीड़ को नियंत्रित कर सकता ?
राम मंदिर के लिए हुई धर्म सभा का मक़सद सुनियोजित था और इसके आयोजक अनुभवी और राजनीतिक रूप से परिपक्व थे। ज़ाहिर है इसमें किसी क़िस्म की अफ़वाह की सम्भावनाएँ बेहद कम थीं मगर फिर भी कल्पना की ही जा सकती है कि यदि एसा होता तो क्या होता ? गौवंश के अवशेष मिलने पर हुआ बवाल भी तो सुनियोजित लग रहा है । एसा कुछ सुनियोजित इस धर्मसभा में हो जाता तो ? उस देश में जहाँ अक्सर भीड़ शासन-प्रशासन की माईबाप होती है और भीड़ को सज़ा देने का तंत्र ही विकसित नहीं हुआ , वहाँ इस क़िस्म की भावुक भीड़ को जमा होने देना कहाँ तक उचित है ? आज़ादी के आंदोलन के अतिरिक्त हमारी भीड़ कभी कुछ सकारात्मक कर पाई है क्या ? इस भीड़ के खाते में तो सन 1984 जैसे दंगे अथवा गौ हत्या , चुड़ेल अथवा बच्चा चुराने के नाम पर मासूमों की हत्यायें ही हैं । भीड़ का हिस्सा बनते ही हमारा जानवर बाहर आ जाता है और उसे पोषित करता है यह विचार कि भीड़ को कभी सज़ा नहीं होती । भीड़ भेड़ों को भेड़िया बनाने की कूव्वत रखती है और उसके आस्तीनों में सांप पलते हैं । अपनी तनहाइयों से डरा आदमी आज भीड़ का हिस्सा बनने को बेताब है और उसकी पहचान में अपनी शिनाख्त शामिल करने से भी नहीं हिचकता। यही समर्पण हमें अपने इर्दगिर्द भीड़ सजाने को उकसाता है और भीड़ में अपने साये के भी ख़त्म हो जाने के बावजूद हम उस भीड़ में अपने होने का अर्थ ढूँढने लगते हैं । मगर शासन-प्रशासन और पूरी व्यवस्था को क्या हुआ है ? वह भीड़ के लिए कोई रीति-नीति विकसित क्यों नहीं करती ? अभी और कितनी क़ुर्बानियों के बाद हम जागेंगे ? मेरी तरह यह भीड़ उसे क्यों नहीं डराती ?