बस उसकी खुशी देखना
रवि अरोड़ा
संजय नगर में आना जाना लगा रहता है। वहां एक मोड़ पर बैठे कपड़े प्रेस करने वाले अधेड़ पर मेरी निगाह भी अक्सर पड़ ही जाती थी। इस बार उधर से गुजरा तो देख कर हैरान हुआ कि उसकी प्रेस अब कोयले से नहीं वरन गैस से गरम हो रही है। चूंकि ऐसा मैंने पहले कभी नहीं देखा था सो रुक कर उससे बातचीत की तो तकनीक से आती खुशियों की एक और दुनिया देखी। दरअसल उसने यह प्रेस हाल ही में खरीदी है और कीमत भी सामान्य प्रेस से कहीं ज्यादा यानि ढाई हजार रुपए चुकाई है । गैस का सिलेंडर और रेगुलेटर वह अपने घर का उठा लाया और पूरी दुनियां की देखा देखी उसने भी तकनीकी रूप से अपने रोज़गार को आधुनिक कर लिया ।
बकौल उसके जब से यह प्रेस ली है, उसकी कई दिक्कतें समाप्त हो गई हैं। पहले पुरानी प्रेस के लिए कोयला लेने चौपला जाना पड़ता था और बरसात के दिनों में गीला कोयला मिलने से भी बेहद परेशानी उठानी पड़ती थी मगर अब गीले सूखे का कोई झंझट ही नहीं रहा । कोयले की प्रेस एक बार गर्म हो जाए और प्रेस करने के लिए कपड़े कम हों तो आर्थिक नुकसान हो जाता था मगर अब जब चाहो रेगुलेटर से गैस बंद कर सकते हैं। कोयले की प्रेस से अक्सर उड़ कर राख कपड़ों पर गिर जाती थी और ग्राहक की नाराजगी झेलने पड़ती थी मगर अब राख की समस्या भी ख़त्म हो गई । इस प्रेस के आने के बाद उसकी कमाई भी बढ़ गई है। गैस कोयले से सस्ती पड़ती है और हज़ार रुपए का सिलेंडर पूरे एक महीने चलता है जबकि कोयले की लागत डेढ गुनी आती थी । यूं भी ढाई किलो वजनी प्रेस से कपड़े भी करीने से इस्त्री हो जाते हैं और इसी के चलते ग्राहकी बढ़ गई है । ठीए पर साफ सफाई रहने से अब काम में उसका मन भी अधिक लगता है।
इस प्रेस वाले की खुशी मुझे अच्छी लगी और मैंने मन ही मन दुआ की कि इसे कहीं किसी की नज़र न लग जाए । दरअसल वह जो सिलेंडर इस्तेमाल कर रहा था वह घरेलू गैस का है और कायदे से उसे कमर्शियल सिलेंडर इस्तेमाल करना चाहिए । मगर दोगुनी कीमत का कमर्शियल सिलेंडर इस्तेमाल करने पर तो सारा मुनाफा उसी में चला जायेगा । फिर मैंने सोचा कि इतनी छोटी सी चोरी पर भला किसकी नजर जायेगी और यदि चली भी गई तो कोई मामूली सी बात के लिए इस गरीब आदमी का उत्पीड़न क्यों करेगा ? फिर अचानक हाल ही में मिला दिल्ली की पॉश कॉलोनी ग्रेटर कैलाश 2 की मार्केट का चाय वाला रामायण कश्यप याद आया । सड़क किनारे अपनी छोटी सी छाबड़ी लगाने पर उसे सौ रुपए रोज़ दिल्ली पुलिस की पीसीआर को देने पड़ते हैं। रामायण ही क्यों वहां खड़े सभी खोमचे वाले भी अपनी एक चौथाई कमाई पुलिस पर लुटाते हैं। अपने शहर में भी गरीब ठेली पटरी वालों को नगर निगम, जीडीए और पुलिस की आसामी बनते रोज देखता हूं। वैसे देखा जाए तो इस मामले में तो नायाब है अपना मुल्क। बेशक कोई नीरव मोदी, मेहुल चौकसी अथवा विजय माल्या जैसा बड़ा आदमी अरबों रुपयों का घोटाला कर फरार हो जाए और हमारा सिस्टम उसका कुछ न बिगाड़ सके मगर क्या मजाल कि सौ दो सौ रुपए की दिहाड़ी बनाने वाला कोई मेहनतकश इस सिस्टम को चुनौती दे सके ? सारे नियम कानून गरीब आदमी के लिए ही तो बने हैं। चलिए नियमों का पालन ही करा लें तो भी शाबाशी दे दें मगर यहां तो नोट दिखते ही नियम गायब हो जाते हैं। एक ही नियम बचता है कि कोई सुविधा उठानी है तो सुविधा शुल्क देना ही पड़ता है। हालांकि इस प्रेस वाले का नाम मैंने आपको नहीं बताया है मगर फिर भी यदि आपकी निगाह उस पर पड़ जाए तो बराए मेहरबानी केवल उसकी खुशी देखना इस्तेमाल होता घरेलू गैस सिलेंडर नहीं।