बड़े होने का दर्द
रवि अरोड़ा
आम आदमी होने की तमाम सिफ़तें हैं । सबसे ख़ास तो यही है कि उसे इतिहास में नहीं जाना होता और आने वाली पीढ़ियाँ उससे कोई सवाल भी नहीं करतीं । हो सकता है कि आप मुझे बड़ा आदमी होने के फ़ायदे गिनायें और उनके समक्ष मैं निरुत्तर हो जाऊँ मगर यह बात तो आप भी मानेंगे कि ख़ास होते ही आपकी इतिहास के प्रति जवाबदेही हो जाती है और आपके मुँह से निकला हुआ एक एक शब्द ख़ुद इतिहास हो जाता है । आपको यह बात भी स्वीकार करनी पड़ेगी कि इतिहास के समक्ष बड़े बड़े बादशाह भी सिफ़र हैं । इतिहास तो सत्य-असत्य की कसौटी पर ही आपके एक-एक शब्द को तौलेगा । अब हमारे नरेंद्र मोदी जी भी किसी बादशाह से कम तो नहीं । इतिहास में उनके लिये भी कई पृष्ठ सुरक्षित हो चुके हैं सो सवाल तो उनकी ओर भी उछलेंगे । चूँकि कुछ अधिक ही बोलते हैं तो शर्तिया कुछ ज़्यादा ही उछलेंगे ।
सच बताऊँ तो मैं मोदी जी का भक्त हूँ और नहीं चाहता कि इतिहास उनसे कोई आलतू-फ़ालतू सवाल करे । यही वजह है कि अपनी ओर से उनके पक्ष में झंडा और डंडा लिए तैयार खड़ा रहता हूँ । इसी कड़ी में कल से यह जानने की जीतोड़ कोशिश कर रहा हूँ कि बांग्लादेश की आज़ादी के आंदोलन में मोदी जी कौन सी जेल में ले जाये गए थे मगर अभी तक इसमें सफलता नहीं मिली । इंटरनेट पर उपलब्ध मोदी जी से सम्बंधित तमाम जानकरियाँ कोई संतोषजनक जवाब ही नहीं दे पा रहीं । वाराणसी लोकसभा चुनाव से पूर्व उनके द्वारा दिये गए शपथ पत्रों में भी ऐसा कुछ नहीं मिला । हालाँकि उनके जेल जाने का कोई प्रमाण तो इमरजेंसी के उस दौर का भी नहीं मिला जब जनसंघ और आरआरएस का छोटे से छोटा कार्यकर्ता भी सलाखों के पीछे था । मगर मैं फिर भी माने हुए हूँ कि कम से कम तब तो वे जेल ज़रूर ही गये होंगे मगर ये बांग्लादेश स्वाधीनता आंदोलन वाला क्या चक्कर है , वहाँ क्या कह आये ? कहीं ऐसा तो नहीं कि बात को कुछ अधिक ही बढ़ा चढ़ा कर कहने की अपनी आदत का वे इस बार भी शिकार हो गये हों और इसी के चलते लम्बी हाँक आये ?
अब इसमें तो कोई दो राय नहीं कि बड़े लोगों के समक्ष यह दबाव तो हमेशा होता ही है कि वे लोगों को समझाएँ कि वे आपकी वजह से बड़े नहीं बने बल्कि पैदाइशी ही बड़े थे । उन्हें साबित करना होता है कि जिस उम्र में आप लोग छिपकली से डरते थे उस उम्र में वे मगरमच्छ पकड़ लिया करते थे । जिस उम्र में आप लोग बाप से मिली पाकेट मनी पर ऐश करते थे उस उम्र में वे स्टेशन पर चाय बेचते थे। किशोरावस्था में जब आप लोग लड़कियों के चक्कर काटते थे तब वे युद्धकाल में सैनिकों की सेवा करते थे। आपकी हर छोटी लकीर के मुक़ाबिल उन्हें अपनी बड़ी लकीर खींचनी पड़ती है । आप अपना संघर्ष बताएँगे तो वे अपना इतना बड़ा संघर्ष गिनायेंगे कि आपका संघर्ष शर्मिंदा ही हो उठेगा । आप अपनी ग़रीबी का दुखड़ा रोयेंगे तो वे साबित कर देंगे आपकी ग़रीबी तो कुछ भी नहीं । ग़रीबी तो जनाब हमने झेली है । बड़ा मुश्किल है अपनी बात को दूसरों की बात से बड़ा करना । माँ से दूसरों के घरों में बर्तन मंझवाने पड़ते है और साबित करना पड़ता है कि उन्होंने दशकों तक भीख माँग कर पेट भरा है । ज़रूरत के हिसाब से कभी ख़ुद को अनपढ़ तो कभी बीए-एमए बताना पड़ता है । बहुत मेहनत का काम है बड़ा दिखना । ना जाने कहाँ कहाँ माथा टेकना पड़ता है । किस किस को गले लगाना पड़ता है । रोना पड़ता है-रुलाना पड़ता है । कैसे कैसे फ़ोटो सेशन कराने पड़ते हैं । बड़े होने का दर्द तुम क्या जानो रमेश बाबू । बस ! इस कमबख़्त इतिहास पर नज़र रखना । ये कभी ऊल जलूल सवाल ज़रूर करेगा ।