फैज़ साहब नहीं मेरी गली के कुत्ते

रवि अरोड़ा
मेरी गली में कुछ मिला कर बीस बाइस ही घर होंगे मगर कुत्ते किसी भी सूरत इससे ज्यादा हैं। हैरान परेशान अधिकांश घरों से इन्हें खाना नहीं मिलता मगर जहां से मिलता है वहां से इतना मिलता है कि सभी कुत्तों का पेट भर जाता है। एक आंटी तो सर्दी गर्मी और बरसात से आवारा कुत्तों को बचाने के लिए उन्हें बाकायदा अपने घर के भीतर भी पनाह दे देती हैं। खुद मेरे पिता जी भी गली के कुत्तों को रात को डबल रोटी खिलाए बिना नहीं सोते । हालांकि मुझे कुत्तों से इतना प्यार नही है मगर उनके पानी का खयाल मैं भी रखता हूं। मोहल्ले की कोई कुतिया गर्भवती हो तो मेरे घर से उसके लिए दूध की व्यवस्था होना भी लाज़मी है । बावजूद इसके मैं आजतक इस नतीजे पर नहीं पहुंचा कि शहरों में इंसानी जनजीवन को चुनौती देते जा रहे इन कुत्तों से हमदर्दी उचित है अथवा कोई बड़ी समस्या मान कर इनसे निपटा जाए ? हाल ही में छोटे छोटे बच्चों को आवारा और कहीं कहीं पालतू कुत्तों द्वारा भी गंभीर रूप से घायल कर देने वाली अनेक खबरों से मन की यह विचलन और बढ़ गई है।
पशु धन के सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश में तीन साल पहले तक 1 करोड़ 93 लाख आवारा कुत्ते थे । इनमें अकेले उत्तर प्रदेश में इनकी संख्या 20 लाख 60 हजार थी । ज़ाहिर है कि इस हिसाब से सौ आदमियों के मुक़ाबिल लगभग एक कुत्ते का ही औसत है। यह आंकड़ा इतना अधिक नहीं है कि हाहाकार मच जाए। मगर बदइंतजामी और असंतुलन के कारण शहरों के लिए यह अब बड़ी समस्या बन कर उभरा है। लगभग सभी जगह आरडब्ल्यूए और सोसाइटीज की राजनीति इसी के इर्दगिर्द घूमने लगी है। कुत्तों से परेशान लोग इन्हें खाना देने के तो खिलाफ हैं ही इन्हें मारने का दबाव भी स्थानीय प्रशासन पर बनाते हैं तो वहीं पशु प्रेमी इसके खिलाफ़ कोर्ट कचहरी की धमकी देते हैं। केरल का एक मामला तो अब सर्वोच्य न्यायालय भी पहुंच गया है और इसी मुद्दे पर आगामी 28 सितंबर को कोई बड़ा फैसला भी शीर्ष अदालत सुना सकती है। वैसे अदालत ने शुरू में ही यह कह कर पशु प्रेमियों को भी आड़े हाथों ले लिया है कि केवल खाना देने से काम नहीं चलेगा , कुत्तों के टीकाकरण की जिम्मेदारी भी आपको लेनी चाहिए। क्या ही अच्छा हो कि अदालत कुत्तों से नफरत करने वालों की भी कोई जिम्मेदारी तय कर दे। स्वाभाविक सी बात है कि यदि आप कुत्तों से परेशान हैं तो इस परेशानी के समाधान में आपकी भी कोई भूमिका होनी चाहिए।
क्या विडंबना है कि अपनी सुरक्षा को हजारों साल पहले हमने कुत्तों को पालतू बनाया और अपने धर्म ग्रंथों तक में उसकी महत्ता का गुणगान किया और अब हम उन्हें अपनी जिंदगी से निकालना चाहते हैं। जबकि क्रमिक विकास में ये कुत्ते अब हमारे बिना जीने की योग्यता ही खो चुके हैं। इसमें कोई हर्ज नहीं कि हम पशुओं के अधिकारों पर अपनी सुरक्षा को अधिक तरजीह दें। यकीनन इंसानी बस्तियों में इंसानी सुख सुविधा पहली प्राथमिकता होनी ही चाहिए । मगर यह लक्ष्य तो इन आवारा कुत्तों की संख्या को बेतहाशा बढ़ने से रोक कर भी हासिल किया जा सकता है। कुत्तों की नसबंदी, उनके गुस्से को कम करने के लिए उसके भोजन पानी का इंतजाम और उन्हें एक ही क्षेत्र तक महदूद कर भी तो यह काम किया जा सकता है। यदि हम ऐसा कर पाएं तो हमें करोड़ों चौकीदार मुफ्त में मिल सकते हैं। किसी को नहीं पता कि सर्वोच्च न्यायालय इस मामले में क्या फैसला देने जा रहा है मगर पता नहीं क्यों मुझे कुछ आस जगी है कि शायद इस समस्या का अब कोई बेहतर समाधान निकल आए जो सभी पक्षों को अपना सा लगे।

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