फिर वही कंपीटीशन

रवि अरोड़ा
मेरा मानना है कि वह चुनावी जुमला रहा होगा और मोदी जी की मंशा कतई ऐसी चुटकी लेने की नहीं रही होगी जो भविश्य में उनके ही गले की फांस बन सकती थी। स्मरण तो आपको भी होगा कि साल 2014 के चुनावों से पूर्व अपनी सभाओं में मोदी जी कैसे यूपीए सरकार की आर्थिक नीतियों और रुपए की गिरती कीमतों पर कटाक्ष किया करते थे और हंस हंस कर कहते थे ” मनमोहन सिंह की सरकार और रुपए के बीच गिरने का कंपीटीशन चल रहा है…जब रूपया गिरता है तब देश का मान सम्मान भी गिरता है ” । खफा न हों। दशक पुराना गड़ा मुर्दा उखाड़ने के पीछे मेरी मंशा मोदी जी का बचाव करने की ही है। दरअसल सोशल मीडिया पर आए दिन चंडूखाने की खबरें फैलाई जा रही हैं कि भारतीय रुपया बांग्लादेशी टके और अफगानी रुपए से भी नीचे आ गया है। अमेरिकी और कनेडियन डॉलर, यूरो, पाउंड और चीनी करेंसी युआन से लगातर पिछड़ने के भी नए नए आंकड़े परोसे जा रहे हैं। जबकि सच्चाई गहन विश्लेषण की मांग करती है।

यकीनन नौ साल के मोदी शासन की आर्थिक तस्वीर उतनी सुंदर नहीं है, जितनी कि प्रचारित प्रसारित की जा रही है। कहने को तो हम दसवीं से पांचवी बड़ी अर्थव्यवथा हो गए हैं मगर फिर भी इस तस्वीर में अनेक झोल हैं। जिस विकास पर हम उछल रहे हैं, वह मुठ्ठी भर लोगों का ही है। स्वयं सरकार कह रही है कि इस साल वह 81 करोड़ लोगों की आर्थिक हालत को देखते हुए उन्हें मुफ्त राशन दे रही है। जब आधी से कहीं ज्यादा आबादी के पास भोजन तक का इंतजाम नहीं है तो फिर असली आर्थिक स्थिति का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। मोदी सरकार का दावा है कि पिछले नौ साल में प्रति व्यक्ति आय 86664 रुपए सालाना से बढ़ कर 172000 हजार हो गई है। विकासशील देशों का यह आम औसत है। हिसाब से यह रकम लगभग दो गुनी है मगर फिर भी मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल के मुकाबले यह औसत काफी कम है। मनमोहन सिंह के शासन में यह राशि 33588 से बढ़कर 86647 हो गई थी जो ढाई गुना से भी अधिक बैठती है। दिल्ली में जिस जी 20 की बैठक का आजकल खूब हल्ला है, उन सभी में भी सबसे कम प्रति व्यक्ति आय वाले देशों में हम शुमार होते हैं।

यह खबर कोरी बकवास है कि बांग्लादेशी टके से भारतीय रुपया पिछड़ गया है। इन पंक्तियों को लिखते समय तक भारतीय एक रुपए की कीमत बांग्ला देश के एक रुपए 33 पैसे है। अफगानिस्तान का रूपया मोदी सरकार से पहले ही भारतीय रुपए से बेहतर था और अब भी वहां के 89 पैसे हमारे रुपए के बराबर हैं। पाकिस्तान को छोड़ कर अन्य पड़ौसी देशों नेपाल, भूटान और श्रीलंका आदि से हमारी विनिमय दरें भी लगभग यथावत हैं। हां अमेरिकी समेत विकसित देशों के समक्ष हमारी करेंसी जरूर घुटने टेकती जा रही है। मोदी जी के सत्ता संभालते समय अमेरिकी डॉलर 58 रुपए का था जो अब 83 रुपए तक पहुंच गया है। कनेडियन डॉलर 55 रुपए से 61 रुपए हो गया है। यूरो 81 रुपए से 92 रुपए, पाउंड 61 से 104 रुपए और चीनी करेंसी युआन 9 रुपए 90 पैसे से 12 रुपए 21 पैसे तक पहुंच गया है। यानि दुनिया के बड़े देशों के मुकाबले हमारी करेंसी नीचे जाने से रोकने में मोदी जी पूरी तरह असफल साबित हुए हैं। यह सूरते हाल तब है जब जीएसटी के रिकॉर्ड तोड कलेक्शन और बेपनाह विदेशी कर्ज के चलते सरकार की झोली लबालब भरी हुई है। देश के 14 पूर्व प्रधानमंत्रियों ने 67 सालों में 55 लाख करोड़ रुपया कर्ज लिया जबकि मोदी जी ने अकेले सौ लाख करोड़ से अधिक कर्ज ले लिया है। चलिए अपनी बात फिर दोहराया हूं और पूरी तरह स्वीकार करता हूं कि मोदी जी ने केवल चुनावी जुमला छोड़ा होगा और 2014 के चुनावों के दौरान उन्होंने जो कहा कि सरकार और रुपए के बीच गिरने का कंपीटीशन चल रहा है। हां यदि वह जुमला नहीं था तो मुआफ़ कीजिए वह बात तो अब मोदी सरकार पर पहले से अधिक लागू होती नजर आ रही है।

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