फिर फ़ेल हुए राहुल
रवि अरोड़ा
राहुल गांधी के बारे में मेरी राय हमेशा से बहुत साफ़ रही है । वे बहुत मेहनती नेता हैं और आम लोगों से जुड़ना भी बख़ूबी जानते हैं । हालाँकि वे कुशल वक़्ता नहीं हैं और गाहे बगाहे उनकी ज़बान भी फिसल जाती है मगर वे फिर भी नेक दिल हैं इसमें उनके विरोधियों को भी शक नहीं है । विगत लोकसभा चुनावों में उन्होंने बहुत मेहनत भी की थी मगर अच्छा परिणाम पार्टी को नहीं दिला सके । हालाँकि 2014 के मुक़ाबले 2019 में उनके अध्यक्ष रहते हुए कांग्रेस को 8 सीटें अधिक मिलीं और पार्टी के सांसद 44 से बढ़ कर 52 भी हो गये मगर फिर भी उन्होंने अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया और ख़ूब मान मनव्वल के बावजूद दोबारा यह पद अभी तक नहीं सम्भाला । आज सचिन पायलट के राजस्थान में विद्रोह की ख़बरों को सुनने के बाद मुझे लगता है कि अच्छा ही हुआ जो फिर से पार्टी अध्यक्ष नहीं बने । दरअसल वे बिलकुल इसके योग्य नहीं हैं । अध्यक्ष को तो पूरे देश के कार्यकर्ताओं को जोड़े रखना होता है मगर राहुल तो अपने ख़ास दोस्तों को भी नहीं रोक पा रहे । पहले ज्योतिर्रादित्य सिंधिया और अब सचिन पायलट की बग़ावत निजी तौर पर उनकी ही हार है । माना ये दोनो युवा नेता बहुत महत्वकांशी हैं मगर यह बात राहुल पहले क्यों नहीं समझ सके और क्यों उन्हें इतना आगे बढ़ाया ?
राजस्थान सरकार में कुर्सी के लिए मारामारी शुरू हो गई है । ऊँट किस करवट बैठेगा यह तो अभी नहीं कहा जा सकता मगर इतना तय है कि कांग्रेस की लुटिया डूबनी शुरू हो गई है । एक के बाद एक पार्टी के नेता बग़ावत कर रहे हैं । विगत लोकसभा चुनावों के दौरान कर्नाटक में एसएम कृष्णा , महाराष्ट्र में नारायण राणे और हरियाणा में चौधरी बीरेन्द्र सिंह और उत्तर प्रदेश में जगदंबिका पाल, रीता बहुगुणा, डाक्टर संजय सिंह और राजकुमारी रत्ना सिंह एवं उत्तराखंड में विजय बहुगुणा जैसे दिग्गज कांग्रेस छोड़ कर भाजपा का दामन थाम चुके हैं । ये तमाम लोग वे हैं जो केंद्र में कांग्रेस की सरकारों में मंत्री रहे अथवा प्रदेश अध्यक्ष या मुख्यमंत्री रहे । चुनाव बाद वे ज्योतिरादित्य सिंधिया भी भाजपाई हो गए जो राहुल गांधी के दाहिना हाथ थे और संसद में जिन्हें देख कर राहुल आँख मारते थे । सिंधिया का मामला अभी संभला ही था कि बाँया हाथ सचिन पायलट भी अब साथ छोड़ने जा रहा है । ज्योतिरादित्य को आगे न बढ़ा कर केवल कमल नाथ के भरोसे राहुल चलते तो शायद मध्य प्रदेश की सरकार बच जाती । गहलौत पर पायलट को तरजीह देकर अपनी पार्टी की राजस्थान सरकार को भी राहुल ने ख़तरे में डाल दिया है । इसमें कोई दो राय नहीं कि कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में गये तमाम नेता अब स्वयं को ठगा महसूस कर रहे हैं । बेशक वे अब सत्ता के नज़दीक हैं मगर जो रुतबा और सम्मान उन्हें कांग्रेस में मिला भाजपा में वे उसकी चाह भी नहीं कर सकते । कांग्रेस में नम्बर दो तीन के पायदान पर खड़े सिंधिया को भाजपा में शामिल कराने के लिए मोदी और शाह की जोड़ी ने समय भी नहीं दिया । अन्य नेताओं का भी यही हाल है और वे चुपचाप बैठे अपने समय का इन्तज़ार कर रहे हैं ।
कांग्रेस मे टूट फूट और नेताओं का आना जाना कोई नई बात नहीं है । 28 दिसम्बर 1885 में गठन के बाद से ही पार्टी में गुटबाज़ी रही है और नरम दल बनाम गरम दल में नेता बँटे रहे हैं । वर्ष 1989 में इंदिरा गांधी के आगमन से बक़ायदा पार्टी के दो फाड़ हुए । सोनिया गांधी के आगमन के बाद भी बग़ावत कर ममता बैनर्जी व शरद पवार जैसे क्षत्रपों ने अपनी अपनी पार्टी बना ली । अब इतिहास के इसी झरोखे से देखें तो वर्तमान की टूट फूट बहुत छोटी लगती है मगर सबसे ख़ास लोगों के ही बग़ावत करने की रौशनी में देखे तो इस बार यह नेतृत्व की ही क़ाबलियत पर सवाल खड़े करती है । मुझे लगता है कि यही समय है कि जब पार्टी की कार्यकारी अध्यक्षा सोनिया गांधी को पार्टी की ज़िम्मेदारी राहुल की बजाय किसी और नेता को सौंपनी चाहिये । वैसे यदि चुनाव घर में ही होना है तो प्रियंका गांधी भी कोई बुरा फ़ैसला नहीं होगा ।