पहली शर्त

रवि अरोड़ा
मेरे ऑफ़िस में कभी एक लड़का चाय-पानी लाने का काम करता था । मूलतः ओड़िसा का रहने वाला वह लड़का बेहद मेहनती और लगनशील है सो धीरे धीरे उसने अच्छी ख़ासी तरक़्क़ी भी कर ली । आजकल वह एक फ़ैक्ट्री में सुपरवाइज़र है । मेरा अंदाज़ा है कि कम से कम बीस-पच्चीस हज़ार रूपया महीना तो अवश्य कमाता होगा । यहीं रह कर उसकी शादी हुई और बाल बच्चे भी हो गए । आज सुबह उसका फ़ोन आया और उसने मुझसे जानना चाहा कि देश-दुनिया में आजकल क्या चल रहा है ? कुरेदने पर पता चला कि कोरोना के आतंक के चलते उसके साथ के लोग वापिस अपने राज्य जा रहे हैं और इस मामले उसने मेरी राय जानने के लिए फ़ोन किया है। यह सुनते ही मेरा पहला सवाल रुपये पैसे सम्बंधी था जिस पर उसने बताया कि पैसे की कोई दिक्कत नहीं है और लोकडाउन में भी कम्पनी तनख़्वाह दे रही है । उसने बताया कि उसके साथ के लोग कह रहे हैं कि दुनिया अब ख़त्म होने वाली है और जब मरना ही है तो अपने गाँव जाकर क्यों न मरें । सुन कर बड़ी हैरानी हुई कि क्या ग़रीब और मज़दूर वर्ग में इसी तरह की अफ़वाहें भी आजकल फैली हुई हैं ? बड़े शहरों से आजकल श्रमिकों का जो पलायन हो रहा है , क्या उसके मूल में एसी अफ़वाहें भी तो नहीं हैं ? बेशक खाने पीने की दिक्कत और रोज़गार बंद होना ही पलायन का प्रमुख कारण होगा मगर फिर भी यदि अफ़वाहों और ग़लत सूचनाओं का यह आलम है तो फिर देश भर में यह सिलसिला चंद लाख लोगों को उनके घर पहुँचा कर थम जाएगा क्या ?
इसमें तो कोई दो राय नहीं कि हमारा पूरा सिस्टम ही ग़रीब और श्रमिक विरोधी है । सुबह से लेकर शाम तक मिली सौ ख़बरों में से अस्सी इन्हीं मजलूमों की हिला देने वाली कहानियाँ से भरी होती हैं । दो महीने होने को आये अभी तक इनके बाबत कोई ठोस फ़ैसला नहीं हो सका है । कभी घर पहुँचाने की बात होती है तो कभी आश्रय स्थल भेजने को कहते हैं । सैकड़ों मर चुके हैं और फिर भी इनके सड़कों पर आने का सिलसिला थम नहीं रहा । श्रमिकों के प्रति उपेक्षा ही है कि ढंग से अभी तक यह जानने का प्रयास भी नहीं हुआ कि वे अपने गाँव वापिस क्यों जाना चाहते है ? कोई सोच नहीं रहा कि जब भारत में तो हर तीसरा आदमी प्रवासी है और यदि सभी इसी तरह सोचने लगें तो पूरा सिस्टम ही ठप नहीं हो जाएगा क्या ? वर्ष 2011 की जनगणना से पता चला था कि देश में कुल 46 करोड़ 36 लाख लोग यानी 37 फ़ीसदी आबादी प्रवासी हैं । अर्थात काम काज के लिए अपने घर से दूर रहते हैं । इसी जनगणना के अनुरूप देश में कुल 48 करोड़ कामक़ाज़ी हैं । इस हिसाब से तो लगभग अधिकांश लोग रोज़गार के लिए अपने मूल स्थान से दूर रह रहे हैं । देश के बड़े शहरों में 29 फ़ीसदी आबादी प्रवासी दिहाड़ी मज़दूरों की है । दिल्ली में प्रवासियों की तादाद 43 परसेंट , मुम्बई में 55 फ़ीसदी और सूरत में तो 65 परसेंट लोग बाहर से काम करने आये हुए हैं । अब मजबूरी है अथवा अफ़वाहों का ज़ोर मगर इन प्रवासी श्रमिकों में ही अब घर लौटने की हड़बड़ी देश भर में देखने को मिल रही है । यक़ीनन यह सरकारों की ही असफलता है जो वह उन्हें यह कामकाज के स्थान पर उनके गुज़र बसर का इंतज़ाम नहीं कर सकीं । अब जब वे अपने मूल स्थान लौटना चाह रहे हैं तो उन्हें जगह जगह प्रताड़ित किया जा रहा है । पता नहीं देश के कर्णधार यह क्यों नहीं समझ रहे कि श्रमिकों को घर लौटने में जितनी अधिक परेशानी होगी , उनके वापिस काम पर लौटने की सम्भावना उतनी ही कम होगी । नतीजा गाँवों में ग़रीबी और बेरोज़गारी बढ़ेगी और शहरों में काम करने वाले लोग नहीं मिलेंगे । पता नहीं क्यों देश चलाने वालों के यह बात पल्ले नहीं पड़ रही कि काम धंधे के लिये पहली शर्त काम करने वाले दो हाथ होते हैं , पूँजी और बड़ी बड़ी योजनाएँ नहीं ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

RELATED POST

जो न हो सो कम

रवि अरोड़ाराजनीति में प्रहसन का दौर है। अपने मुल्क में ही नहीं पड़ोसी मुल्क में भी यही आलम है ।…

निठारी कांड का शर्मनाक अंत

रवि अरोड़ा29 दिसंबर 2006 की सुबह ग्यारह बजे मैं हिंदुस्तान अखबार के कार्यालय में अपने संवाददाताओं की नियमित बैठक ले…

भूखे पेट ही होगा भजन

रवि अरोड़ालीजिए अब आपकी झोली में एक और तीर्थ स्थान आ गया है। पिथौरागढ़ के जोलिंग कोंग में मोदी जी…

गंगा में तैरते हुए सवाल

रवि अरोड़ासुबह का वक्त था और मैं परिजनों समेत प्रयाग राज संगम पर एक बोट में सवार था । आसपास…