द टर्मिनल की वापसी

रवि अरोड़ा
सन 2004 में मशहूर हॉलीवुड डायरेक्टर स्टीवन सलिप्बर्ग की एक फ़िल्म आई थी- द टर्मिनल । स्टार अभिनेता टॉम हेक्स की मुख्य भूमिका वाली इस फ़िल्म ने उस दौर में दो सौ बीस मिलियन डॉलर कमाये थे । फ़िल्म में दिखाया गया था कि पश्चिमी यूरोप के एक छोटे से देश का एक नागरिक विक्टर नवोर्सकी अमेरिका के जेएफ कैनेडी एयरपोर्ट पर अट्ठारह साल तक फँसा रहता है । दरअसल उसके पासपोर्ट की वैधता समाप्त हो चुकी थी और उसके देश को चूँकि अमेरिकी सरकार द्वारा मान्यता नहीं थी अतः वह अपने घर लौट नहीं सकता था । स्थिति यह थी कि एयरपोर्ट से बाहर आने के लिए भी उसके पास आगे का अमेरिकी वीज़ा नहीं था । इस ब्लॉक बस्टर फ़िल्म को दुनिया लगभग भूल ही चुकी होती यदि पूरी दुनिया में कोरोना का यह आतंक न व्याप्त हुआ होता । दरअसल इन दिनो दुनिया भर के तमाम हवाई अड्डों पर फँसे लोगों की तादाद अनगिनत है जो अब अपने देश लौट नहीं पा रहे और वीज़ा सम्बंधी दिक़्क़तों के कारण उस देश में भी नहीं ठहर सकते ।
सरकारी आँकडे बताते हैं कि भारतीय मूल के दो करोड़ अस्सी लाख लोग विदेशों में रहते हैं । इनमे से एक करोड़ पच्चीस लाख लोग एनआरआई हैं । लाखों की संख्या में एसे छात्र भी हैं जो विभिन्न देशों में पढ़ाई के लिए आजकल वहाँ गए हुए हैं । इसके अतिरिक्त वहाँ फँसे पर्यटकों और प्रोफ़ेशनल्स की संख्या भी अच्छी ख़ासी है । लॉकडाउन की घोषणा से पूर्व ही भारत ने विदेशों से विमानों का परिचालन बंद कर दिया था । अनेक विमान जो विदेशों से रास्ते में थे उन्हें भी भारत में उतारने की अनुमति नहीं दी गई । जो लोग विदेशी एयरपोर्ट पहुँच चुके थे अथवा जिनकी अगली तारीख़ों की टिकिट थी , उनका तो ख़ैर कुछ होना ही नहीं था । हाईकोर्ट के आदेश पर सरकार ने विदेशों में फँसे नागरिकों के लिए हेल्पलाइन नम्बर तो जारी किया है मगर इन्हें झूठी तसल्ली देने के अतिरिक्त अभी तक कोई ख़ास मदद नहीं की जा सकी है । विदेशों में फँसे भारतीयों को कब वापिस लाया जाएगा यह बताना तो दूर सरकार ने अभी तक यह जानने का भी समुचित प्रयास नहीं किया है कि आख़िर कितने लोगों को उसे वापिस भारत लाना है । ख़बरें मिल रही हैं कि नौकरी छूट जाने के कारण लाखों लोग तो अकेले गल्फ़ में ही बोरिया-बिस्तर बाँध कर बैठे हैं ।
अमेरिका जैसे देश जहाँ कोरोना का आतंक चरम पर है , वहाँ कितने भारतीय इस महामारी की चपेट में आये एसी कोई जानकारी भी भारत में सार्वजनिक नहीं की गई है । जबकि अकेले अमेरिका में ही दो लाख से अधिक भारतीय छात्र हैं । प्रोफ़ेशनल्स और पर्यटकों की संख्या अलग है । रशिया की 58 यूनिवर्सिटीज में भी हज़ारों भारतीय छात्र फँसे हुए हैं । एक रपट आई थी कि कजाकिस्तान के अल्माती हवाईअड्डे पर सैंकड़ों भारतीय छात्र हैं जो भूखे मर रहे हैं । हीथ्रो हवाई से भी कुछ एसे ही समाचार आए हैं । अकेले कनाडा , आस्ट्रेलिया , मलेशिया और फ़िलिपींस में फँसे लोगों की संख्या भी लाखों में बताई जाती है । अपने यहाँ फँसे विदेशियों को कुछ देश आर्थिक मदद कर रहे हैं मगर आस्ट्रेलिया जैसे भी कई देश हैं जिन्होंने मदद से साफ़ इंकार कर दिया है । विकसित मुल्कों में जीवन यापन चूँकि बहुत महंगा है अतः उन्हें ख़र्चे के लिए पैसे भेजने में यहाँ उनके परिजनों के पसीने छूट रहे हैं । कहना न होगा कि लॉकडाउन में परिजन पहले ही आर्थिक तंगी के चक्र में फँसे हुए हैं ।
हैरानी का विषय है कि बाहर के देशों के अनुरोध पर भारत में फँसे हज़ारों लोगों को वापिस उनके देश भेजने में तो भारत सरकार ने तत्परता दिखाई है और एयर इंडिया की अनेक फ़्लाइट से लगभग बीस हज़ार लोगों को वापिस भी उनके देश भेजा मगर अपने लोगों को वापिस लाने में वह अभी भी उदासीन बनी हुई है । आने वाला वक़्त कैसा है , अभी कुछ कहा नहीं जा सकता मगर इतना तो तय है कि द टर्मिनल जैसी लाखों कहानियाँ आजकल जन्म ले रही हैं ।

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