दो हर्फी बात
रवि अरोड़ा
आज बैठे बिठाए मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालने का मन है और हिम्मत करके स्कूलों की फ़ीस मुआफ़ी पर बात करना चाहता हूँ । हालाँकि पहले लॉकडाउन से ही देश भर से अभिभावकों की ओर से ऐसी माँग उठने लगी थीं और मैं बड़े ग़ौर से ऐसी ख़बरें देख भी रहा था मगर न जाने क्यों इस विषय पर बात करने का साहस नहीं कर सका । यह हो सकता है कि मेरा कोई बच्चा अब स्कूल में नही पढ़ता अतः फ़ीस मुआफ़ी की माँग के प्रति मेरी सहानुभूति कुछ कम हो । यह भी सम्भव है कि मेरे अनेक मित्र स्कूल संचालक हैं अतः मुझे वे इतने बड़े खलनायक नज़र न आते हों, जितना उन्हें बताया जा रहा है । मगर यह भी तो पूर्ण सत्य है कि फ़ीस मुआफ़ी का आंदोलन चला रहे लोगों में भी मेरे कई घनिष्ट मित्र हैं ।
देश भर में अभिभावक संघों ने फ़ीस मुआफ़ी की माँग को ज़ोर शोर से रखा और धरने-प्रदर्शन जैसे सारे आंदोलनकारी कदम उठाये । मामला सरकार और अदालत तक भी पहुँचा मगर फ़ीस मुआफ़ी सम्बंधी कोई फ़ैसला अभी तक नहीं हुआ । हालाँकि सरकार ने इतना तो अवश्य किया कि किसी भी बच्चे का स्कूल से नाम न काटने, ओनलाइन क्लासेज़ से न रोकने और एक साथ तीन महीने की फ़ीस के लिये दबाव न डालने का आदेश स्कूलों को दे दिया मगर फिर भी अभिभावको की मूल माँग पर कान नहीं धरे । आज मैं पूरी ज़िम्मेदारी के साथ यह कहना चाहता हूँ कि मेरी नज़र में फ़ीस मुआफ़ी की माँग ही ग़लत है और निजी स्कूलों से ऐसी उम्मीद पालना तो सरासर बचकाना ही है ।
मुझे लगता है कि सभी अभिभावकों को एक पंक्ति में खड़ा करने और तमाम निजी स्कूलों से भी एक जैसा सलूक करने ने ही फ़ीस मुआफ़ी के आंदोलन को भटकाया है । बेशक अभिभावकों के समक्ष आर्थिक संकट है मगर क्या ऐसा सभी के साथ है ? बेशक कुछ बड़े निजी स्कूल मालिक सालाना करोड़ों रुपये पीट रहे हैं मगर उनके साथ साथ छोटे मोटे स्कूलों को भी खलनायक मानना क्या उचित है ? मैं ऐसे एक दर्जन स्कूल संचालकों को जानता हूँ जिन्होंने बैंक अथवा बाज़ार से ब्याज पर पैसा लेकर स्कूल आदि खोले और अब कोरोना संकट में वे तबाह हो गये । यक़ीनन स्कूल संचालन एक व्यापार है और व्यापार में घाटा-नफ़ा तो होता ही है मगर दूसरों का भी घाटा स्कूल संचालक के ही मत्थे मढ़ने की माँग कहाँ तक जायज़ है ? यक़ीनन कुछ बड़े स्कूलों ने आपदा को अवसर में बदला और बच्चों से पूरी फ़ीस भी वसूली और टीचर्स को भी आधी सेलरी दी मगर ऐसे स्कूल कितने हैं ? छोटे शहरों, क़स्बों, गाँवों, गलियों और घनी बस्तियों में घरों आदि में चल रहे अधिकांश स्कूलों की हालत तो यह है कि उनकी फ़ीस बीस फ़ीसदी भी जमा नहीं हो पा रही और शिक्षकों की ओर से वेतन का लगातार दबाव है । इसमें भी कोई दो राय नहीं कि लॉकडाउन पीरियड में ट्रांसपोर्ट चार्जेज़ नहीं लिये जाने चाहिये मगर ऐसा करने वाले स्कूलों को हम गिने तो सही ?
क्षमा करें मगर सवाल ग़ैरवाजिब नहीं है कि लॉकडाउन में हम सभी ने राशन का भुगतान किया है। दवा आदि पैसा देकर लाये हैं। बिजली के बिल जमा कर रहे हैं । हाउस टैक्स और तमाम अन्य करों का भुगतान भी कर रहे हैं । उधर, बैंक लोन की किश्त जमा करने को बेशक हमें छः महीने की मोहलत मिली मगर अब वे तमाम रुकी किश्तों को ब्याज समेत जमा करवाना पड़ रहा है । कुल जमा बात करें तो जब एक भी चीज़ में हमें कोई रियायत सरकार अथवा अन्य कोई एजेंसी नहीं दे रही तो फिर निजी स्कूलों से ही हम ऐसी उम्मीद क्यों पाले बैठे हैं ? हमारे बच्चे किस स्कूल में पढ़ें यह चुनाव हमने किया था । बच्चे का स्कूल बदलने का हक़ अभी भी हमारे पास है । वर्तमान स्कूल महँगा लगता है अथवा हमारे बजट में नहीं है तब भी हमारे पास सस्ते अथवा मुफ़्त जैसे सरकारी स्कूलों के विकल्प हैं । दो हर्फी बात यह है कि जब हमारी माई-बाप सरकार ही कोई छूट नहीं दे रही तो स्कूल वालों से हमें ऐसी उम्मीद क्यों ?