दुनिया वाया सुरमेदानी

रवि अरोड़ा
एक दौर था जब माएं अपने छोटे बच्चों को तैयार करते समय नहलाने, कपड़े पहनाने और कंघा करने के बाद वह कार्य करती थीं जिसके बाद बच्चे का रोना लाज़िमी हो जाता था । वह कार्य होता था बच्चे की आंख में जबरन सुरमा डालने का । चूंकि मांओं के साथ यह जुल्म उनकी मांओं ने भी किया होता था अतः इसी का बदला शायद वह अपने मासूम बच्चों से लेती थीं । काजल लगाने के बाद बच्चे के रोने से सारा काजल बह कर उसके गालों और कपड़ों पर आ जाता था तो उसके बाद बच्चे का पिटना भी गैरवाजिब नहीं होता था । दरअसल माएं यह मान कर चलती थीं कि काजल से बच्चे की आंखें बड़ी और सुंदर हो जायेंगी । अपनी बड़ी आंखों का श्रेय भी वे अपनी मांओं के इसी जुल्म को देती थीं । लगभग सभी घरों में श्रृंगार के सामान के साथ सुरमेदानी भी अवश्य होती थी । बच्चे की आंखें ज्यादा बड़ी करने को मोटे मोटे सुरमे की सलाइयां भी बाजार में खूब मिलती थीं । ड्रेसिंग टेबल की सुंदरता बढ़ाने को पीतल की सुंदर सुंदर सुरमेदानी तो खैर हर घर की जरूरत होती ही थी ।

सुरमे की महिमा का जिक्र हो तो यह कैसे संभव है कि उन लोकगीतों और फिल्मी गीतों की बात न की जाए जो काजल बिना जैसे अधूरे थे । महिलाओं के सौंदर्य का वर्णन करने हुए तमाम कवि भी उसके काजल और कजरारे नयनों का बखान अवश्य करते थे मगर हाय से विज्ञान ! उसने इस काजल और सुरमे को ही घरों से निकलवा दिया । उसने साबित कर दिया कि सुरमा गैर जरूरी ही नहीं वरन घातक भी है । वैज्ञानिकों ने डाक्टरों के माध्यम से यह बात जन जन तक पहुंचा दी कि ये सुरमे आंखों के लिए ही नहीं वरन पूरे शरीर के लिए नुकसान देय हैं । सुरमा डाले जाने के बाद बच्चे जब दर्द से अपनी आंख मलते हैं तो उससे आंख का कॉर्निया खराब हो जाता है । सुरमे में लेड की मात्रा बहुत होती है और वह भी आंख के माध्यम से शरीर में पहुंच कर अनेक बीमारियों को जन्म देता है । शुक्र है कि अब माएं बच्चों को सुरमा नहीं लगातीं मगर अपनी आंखों को सुंदर बनाने के लिए महिलाओं ने काजल का प्रयोग अभी पूरी तरह नहीं त्यागा है । हालंकि जागरूक महिलाएं अब आंख में काजल डालने की बजाय लाइनर आदि से आंखों को बाहर से ही सजा लेती हैं ।

चलिए मुद्दे पर आता हूं । केवल सुरमे और काजल की ही बात क्यों करूं । अनेक पुरानी मान्यताएं, इलाज, खान पान और जीवन शैली विज्ञान के इस दौर में बदली हैं । अनेक सामाजिक परंपराएं और रीति रिवाज भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण के आगे टिक नहीं सके हैं । हम माने या न माने मगर यह सच्चाई है कि मानवीय व्यवहार को बदलने में विचारधाराओं से अधिक विज्ञान और तकनीक ज्यादा असरकारी साबित हुई है । वे विचारधाराएं टिक नहीं सकीं जो खुद को साबित नहीं कर सकीं । तमाम धर्मों को अपनी उन मान्यताओं को ठंडे बस्ते में डालना पड़ा जो अवैज्ञानिक थीं । बेशक इंसान के समक्ष अभी भी अनेक धार्मिक मान्यताएं बड़ी बाधा बन कर खड़ी हैं मगर धीरे धीरे वे भी कमजोर हो रही हैं । धर्म, जाति और रंग के आधार पर इंसान को इंसान से कमतर समझने वाले समाजों को भी आखिरकार खुद को बदलना ही पड़ा । पूरी दुनिया ऐसे उदाहरणों से भरी पड़ी है । अपने मुल्क की बात करें तो बेशक ऊपरी तौर पर लग रहा है कि धर्म और विचारधारा के आधार पर आदमी और आदमी के बीच की खाई चौड़ी हो रही है मगर यकीन मानिए सुरमे की तरह इसे भी हमारे जीवन से बेदखल होना पड़ेगा । कुल जमा बात यह है कि जाति, धर्म और राष्ट्रीयता संबंधी अपने विचारों को इतना भी कठोर मत बनाइए । दुनिया हमेशा ही ऐसी नहीं रहेगी जैसी अब है । हां चीजें आपके जीते जी बदलेंगी या आपके बाद , यह पता नहीं ।

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