दिल ही तो है
रवि अरोड़ा
हाल ही में एक पत्रकार साथी की माता जी का देहांत हो गया । पत्रकारों के वट्सएप ग़्रुप में नगर के तमाम पत्रकार शोक संवेदना प्रकट कर रहे थे और अंत्येष्टि से सम्बंधी समय और स्थान की जानकारी ग़्रुप में शेयर कर रहे थे । ज़ाहिर है कि शोक की इस घड़ी से महिला पत्रकार भी अछूती नहीं थीं और अपनी संवेदनाएँ प्रकट कर रही थीं । इसी बीच एक महिला पत्रकार ने लिखा कि क्या वह भी अंत्येष्टि में शामिल हो सकती हैं ? ज़ाहिर है कि अंत्येष्टि में महिलाओं के न सम्मलित होने के अघोषित सामाजिक नियम के चलते ही उन्होंने यह सवाल किया होगा । अपनी महिला साथी का अन्य पत्रकारों ने क्या जवाब दिया , यह मैं नहीं पढ़ पाया मगर महिला पत्रकार का यह सवाल ही मुझे सवालों की दुनिया में ले गया । मन विचलित हुआ कि पत्रकार जैसा जागरूक नागरिक होने के बावजूद भी एक महिला सामाजिक नियमों में ख़ुद को कितना जकड़ा महसूस करती है । बस फिर क्या था मैं पिछले कई दिनो से वेदों , उपनिषद और पुराणों में अंत्येष्टि में महिलाओं के शरीक होने अथवा न होने के दिशा निर्देश ढूँढ रहा हूँ ।
मुझे याद है कि मेरे चाचाओं की बारात में मेरी दादी और बुआयें शामिल नहीं हुईं थीं । बारात में सिर्फ़ पुरुष ही दुल्हन के घर तक गये थे । बेशक गाँव देहात में अभी भी एसा हो रहा है मगर अब आम तौर पर महिलाओं के बिना बारातें एक क़दम भी आगे नहीं बढ़तीं । बचपन में बुज़ुर्गों को कुछ बिरादरियों का मज़ाक़ उड़ाते देखा था । वे तंज करते थे कि उनके यहाँ बारात में औरतें सड़कों पर नाचती हैं । मगर अब देखता हूँ कि शायद ही कोई जाति हो जिनकी बारातों में महिलायें भी पुरुषों की तरह अपनी ख़ुशी का इजहार यूँ न करती हों । तो क्या विवाह समारोह जैसे धीरे धीरे शमशान घाट से जुड़ी वर्जनाएँ भी ख़त्म होंगी ? मुझे तो इस सवाल का जवाब हाँ में नज़र आता है । समाज में एसा होते दिख भी रहा है ।
दिल्ली निगमबोध घाट पर कई बार अंत्येष्टियों में शामिल होना पड़ा । वहाँ आम तौर पर महिलायें होती ही हैं । पढ़े लिखे परिवार अथवा सम्पन्न घरानों की महिलायें भी अब अन्य शहरों में अंतिम संस्कारों में खुल कर शामिल होने लगी हैं । बेशक शमशान घाट पर वे एक कोने में बैठी रहें मगर अर्थी के साथ केवल मंदिर तक जाने और वहीं से हाथ मुँह धोकर वापिस घर लौट जाने की परम्परा कमज़ोर पड़ रही है । मृतक का पुत्र न हो तो ज़िद कर कई बेटियाँ भी अब अंतिम संस्कार करने लगी हैं । अख़बारों में भी एसे समाचार अक्सर देखने को मिल जाते हैं ।
शास्त्रों का मैं अध्येता नहीं हूँ मगर मुझे इतना तो पता ही है कि हिन्दुओं में गर्भ धारण से लेकर मृत्यु तक सोलह संस्कार होते हैं । शुरुआती पंद्रह संस्कार महिलाओं के बिना नहीं होते । फिर एसा कब से हुआ कि सोलहवें और अंतिम संस्कार में महिलाओं का प्रवेश प्रतिबंधित हो गया ? वेदों में केवल अथर्ववेद अंतिम संस्कार की व्याख्या करता है और उसमें भी माता-पिता दोनो की अंतिम संस्कार सम्बंधी भूमिका के कई सूत्र हैं । पौराणिक कथाओं में भी राजा हरीश चंद्र के पुत्र रोहित की अकाल मृत्यु पर उनकी पत्नी तारा पुत्र की मृत देह लेकर शमशान घाट आती है । ज़ाहिर है कि उन काल में महिलाओं का शमशान घाट पर प्रवेश प्रतिबंधित नहीं था । मध्ययुग और आधुनिक काल के प्रारम्भ में जब सतीप्रथा अपने चरम पर थी तब भी महिलाएँ शमशान घाट अवश्य आती होंगी वरना उनको सती कैसे कराया जाता होगा ?
गुज़रे दौर पर निगाह डालें तो लगता है कि सदियों तक चले महिलाओं के दमन के मध्यकाल में शायद महिलाओं का शमशान घाट पर आना रोका गया होगा । यह भी हो सकता है कि पुरुषों के मुक़ाबले महिलाओं द्वारा अपनी भावनाओं पर नियंत्रण कम होने की चूँकि मान्यता है और अंतिम यज्ञ के समय उनके रुदन अथवा वैण से धार्मिक रीति रिवाजों में विघ्न पड़ता हो और यह चलन तब से ही शुरू हुआ हो । सामाजिक ताना बाना एक सा ही होने के कारण भारतीय उपमहाद्वीप के अन्य धर्मों में भी यही प्रथा है । मगर सवाल तो यह है कि महिलायें भी तो मृत्यु को प्राप्त होती हैं और मर कर वे भी शमशान घाट पहुँचती हैं फिर इस प्रकार की बंदिशों की क्या तुक है ? मैं मानता हूँ कि महिलायें वैण यानि रुदन ज़्यादा करती है मगर ग़ालिब का यह सवाल भी तो मौजू है- दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त, दर्द से भर न आए क्यूँ । रोएँगे हम हज़ार बार कोई हमें सताए क्यूँ ।