ताकि आत्मा ना भटके

रवि अरोड़ा

चचेरे भाई राजीव अरोड़ा की अस्थियाँ प्रवाहित करने परिजनों के साथ ब्यास गया था । पंडित जी का निर्देश था कि सफ़र में कहीं भी कुछ खायें-पीएँ तो राजीव के लिए भी हिस्सा निकाल लें । करनाल के निकट जिस ढाबे पर रुके , वहाँ के वेटर को भी यह व्यवस्था मालूम थी सो इशारा समझते ही मृत आत्मा के लिए वह अलग से भोजन पैक कर लाया। मुझे याद आया कि कुछ वर्ष पहले एक मित्र के मामा जी का निधन हुआ था । उनकी अस्थियाँ प्रवाहित करने परिजन अहमदाबाद से हरिद्वार आए थे । उन्होंने मृत आत्मा के लिए भी ट्रेन में अलग से एक बर्थ बुक कराई थी । बताया गया कि एसा सिर्फ़ उन्होंने ही नहीं किया वरन हमारे हिंदू धर्म के अधिकांश अनुयायी एसा ही करते हैं । स्वदेश में ही नहीं विदेशों से यहाँ अस्थियाँ प्रवाहित करने के लिए आने वाले हज़ारों एनआरआई भी हर साल अपने साथ हवाई जहाज़ की एक टिकिट मृत आत्मा के लिए भी बुक कराते हैं । परम्परा एसी है कि जब तक अस्थियाँ प्रवाहित नहीं हो जातीं तब तक मृत आत्मा को जीवित मान कर वह सभी सुख-सुविधा दी जाती हैं जो अन्य सभी परिजन पाते हैं । असमंजस में हूँ कि इस व्यवस्था को क्या नाम दूँ ? पहली नज़र में तो यह मृत आत्मा के प्रति परिजनों का अथाह प्रेम नज़र आता है मगर दूसरी नज़र में संसाधनों की बर्बादी भी लगता है । इन दोनो नज़रिए से अलग यह सवाल भी मन में उठता है कि एसे सभी रीति-रिवाज हमारे हिंदू धर्म में ही क्यों हैं ? चलिए अन्य कर्म कांड तो फिर भी हज़म हो जायें मगर यह किस क़िस्म का नया कर्म कांड है ? एसा कब से चल रहा है और यह कुछ क़दम और आगे बढ़ा तो कहाँ जाकर थमेगा ?

लगभग चालीस साल पुरानी बात है । दादा जी का निधन हो गया था । बिरादरी के लिए ब्रह्म भोज का आयोजन होना था सो पिता जी को माँ की चूड़ियाँ बेचनी पड़ीं। आज भी इर्द गिर्द देखता हूँ तो अंतिम संस्कार , चौथा , अस्थि विसर्जन , उठावनी , तेहरवीं , सत्रहवीं और बरसी आते तक अच्छा ख़ासा प्रपंच और बजट नज़र आता है । हवन , गरुड़ पाठ , ब्राह्मण भोज , गौ दान , इसी बीच तीन-चार सामूहिक भोज , धार्मिक और सामाजिक संस्थाओं को चंदा और दान-पुण्य करते-कराते हज़ारों-लाखों के मकान-ज़ेवर बिक जाते हैं । आँकड़े बताते हैं कि देश में हर वर्ष एक हज़ार लोगों में से सात मृत्यु को प्राप्त होते हैं । उनमे से लगभग पाँच हिंदू धर्म के अनुयायी होते हैं । देश की सवा सौ करोड़ की आबादी में से हर साल कितने देह त्यागते हैं , सहज अनुमान लगाया जा सकता है । इस बड़े आँकड़े की रौशनी में कर्म कांडो को देखें तो अरबों रुपयों का दुरोपयोग नज़र आता है । सवाल मौजू है कि एक ग़रीब मुल्क में क्या इन सब के बिना रहा नहीं जा सकता ? लोगबाग़ जीते जी जो सुख-सुविधा नहीं ले पाते , मृत्यु के बाद वह सभी पंडों-पुरोहितों को देने का आख़िर क्या लाभ ? जीवन दुशवार और मरना शान ओ शौक़त में ? इलाज के अभाव में मर जाओ और बाद मरण दान-पुण्य ? तुर्रा यह भी कि नहीं तो आत्मा भटकेगी ? अज़ी यहाँ जो जीवन भर भटकी उसका क्या ? अपने परिजनों का घर बार बिकता देख भला आत्मा शांत हो सकती है ? चलिए माना कि पंडित जी ने मरने के बाद आत्मा की शांति की जिम्मेदारी ले ली मगर जीते जी की आत्मा अशांत ना रहे , इसकी ज़िम्मेदारी भी तो कोई ले ? समाज क्या मय्यत के लिए बना है , मरने से पहले कोई किसी के सुख-दुःख में सक्रिय क्यों नहीं होता ? जिनकी शव यात्राओं में हम शामिल हो आते हैं , जीते जी उनसे मिलते-जुलते रहें तो क्या वे यूँ अकेले और उदास मौत ही मरें ? हरिद्वार , पेहवा और गयाजी जैसे स्थानों पर मृत आत्मा की शांति के लिए जा चुके लोग भली भाँति जानते हैं कि ठगी के पूरे रैकेट वहाँ दुकानें सजाए बैठे रहते हैं । देश के तमाम गली मोहल्लों में उनकी शाखायें खुली हुई हैं । यह ठीक है कि अन्य धर्मों में भी मृत्यु पश्चात के रीति रिवाज हैं और वे भी पाखंडों से परिपूर्ण हैं मगर हम जो ख़ुद को दुनिया सबसे पुराना धर्म और समाज कहते हैं और विश्वगुरु बनने का सपना देखते हैं , क्या हमें उनसे प्रतिद्वंदता करनी चाहिए ? क्या हमें एक उत्कृष्ट समाज का उदाहरण दुनिया के सामने नहीं रखता चाहिए ? मृतक के परिजनों को आर्थिक बोझ से मार कर दोहरी यातना देकर क्या वाक़ई हम एसा कर रहे हैं ? आप भी विचार कीजिए ।

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