ज़ेर-ए-बहस
रवि अरोड़ा
ईद गुज़र गई । इस बार भी शाकाहारियों और एक ख़ास विचारधारा वाले लोगों ने मुस्लिमों पर जम कर हमले किए । पशुओं की बलि अथवा क़ुर्बानी पर एसे एसे संदेश और तस्वीरें सोशल मीडिया पर आईं कि मांसाहारियों के भी दिल दहल गए । अब कुछ भी कहें , आदमियत की पहली शर्त तो करुणा ही है । बेशक शाकाहार समर्थकों के तर्क मांसाहारियों की दलीलों के समक्ष कमज़ोर पड़ जाते हैं मगर फिर भी शाकाहार को बुरी शय तो माँसाहारी भी नहीं कह सकते । मांसाहार के बावजूद उनके भोजन में भी शाक , सब्ज़ियाँ , फल और अन्न तो लाज़मी ही है । हालाँकि सदियों से इस मुद्दे पर बहस हो रही कि कौन सा भोजन बेहतर अथवा उचित है मगर आज तक सर्वमान्य नतीजा भी तो नहीं निकला । अब मेरी क्या बिसात कि मांसाहार बनाम शाकाहार पर कोई फ़ैसला सुना सकूँ मगर सिर खपाई तो कर ही सकता हूँ । तो चलो यही सही ।
मन से मैं भी शाकाहारी हूँ । यही वजह है कि ईद उल अजहा पर अपने मुस्लिम मित्रों के यहाँ मुबारकबाद देने नहीं जाता । मांसाहार पर क़ुरान की तमाम दलीलें मैंने पढ़ी हैं । इस मुद्दे पर हदीस में लिखी बातों से भी अनजान नहीं हूँ । मैं भली भाँति जानता हूँ कि भोजन में क्या खाया जाए अथवा क्या नहीं इसका निर्धारण इंसान का देशकाल व वातावरण करता है और उसी से संस्कृतियों का जन्म होता है । संस्कृतियों से मान्यताएँ उत्पन्न होती हैं और मान्यताएँ ही हमें एसी बहसों में उलझाती हैं कि क्या खायें अथवा क्या न खायें । क़ुरान में सुअर को छोड़ कर सभी अन्य जानवरों को खा सकने की इजाज़त है । इन जानवरों की क़ुर्बानी भी तभी जायज़ मानी जाती है कि जब अल्लाह का नाम लेकर उसे अंजाम दिया जाए । मगर हाय रे इस्लाम, मुसलमानों से ज़्यादा क़ुर्बानी तो बेचारे बकरों को देनी पड़ी और अल्लाह के नाम पर उनकी गर्दन पर छुरी चली । वैसे मेरे धर्म के शाकाहारी भी अक्सर अपने भोजन का पहला निवाला मुँह में डालने से पहले अपने आराध्य देव का स्मरण करते हैं । अब आप कहेंगे कि शाक-भाजी से माँस-मछली की क्या तुलना ? अजी जीव विज्ञानियों की नज़र से तो बात एक ही है । जानवरों में पाँच इंद्रियाँ हैं तो वनस्पति में तीन । जान तो उनमे भी है । माँसाहारियों की यह दलील भी वज़नी है कि अब कोई गूँगा बहरा है तो इसका मतलब यह तो नहीं उसे मार कर खा लिया जाए । दुनिया में एसे विशुद्ध शाकाहारी यानि विग़ेन भी हैं जो दूध और उससे बनी चीज़ों को मांसाहार मानते हैं । हमारे यहाँ ज़मीन के नीचे उगी चीज़ों जैसे आलू और शकरकंद को मांसाहार मानने वाले भी बहुत हैं । एक बड़ा वर्ग प्याज़ और लहसुन को भी मांसाहार मानता है । और भी अनेक मान्यताएँ हैं , क्या क्या याद करें ।
मेरे पिताजी सामने रखे भोजन को भी प्रणाम करते हैं और ईश्वर के साथ उसका भी धन्यवाद करते हैं । महान दार्शनिक नीत्शे भी कहते हैं कि सामने आए भोजन का आभार व्यक्त करो जो अपना अस्तित्व आपके अस्तित्व में समाहित कर रहा है । हालाँकि उनकी यह बात मुझे कभी समझ नहीं आई कि हे बकरी तू शेर का धन्यवाद कर कि वह तुझे अपने शरीर का हिस्सा बनाने जा रहा है । मगर फिर भी उनकी यह बात भी याद रहती ही है । ख़ैर बात फिर वहीं अटकती है कि क्या मांसाहार ग़लत है ? पुराने सभी तर्क जैसे हमारी आँत और दाँत शाकाहारी जानवरों जैसे हैं अथवा हमारे पूर्वज ग्रेट एप्स भी शाकाहारी थे , याद आते हैं मगर फिर भी एसा क्या है कि हज़ारों सालों में इंसान को ये तर्क सहमत नहीं करा सके और दुनिया के सत्तर फ़ीसदी लोग आज भी माँसाहारी हैं । कुल मिला कर सभी तर्क-कुतर्क पुराने हैं और दोनो ही पक्ष नया एंगल नहीं ढूँढ पा रहे कि पर्यावरण , नैतिकता और स्वास्थ्य के नज़रिए से क्या खाना उचित है और क्या नहीं । सारी बहस धर्म , संस्कृति और राजनीति के इर्द गिर्द ही घूमती नज़र आती है । क़ुदरत का भी अजब मज़ाक़ है कि उसने हमारे लिए तय ही नहीं किया कि हम क्या खाएँ और क्या नहीं । सब कुछ हमारे विवेक पर छोड़ दिया और विवेक है कि बौराया पड़ा है । कहीं पढ़ा था कि उनसे बचो जिन्होंने पा लिया है और उनका पीछा करो जो खोज रहे हैं । तो चलो उन्ही का अनुसरण करता हूँ जो इस सवाल का जवाब ढूँढ रहे हैं ।