छुट्टियों में हिस्सेदारी

रवि अरोड़ा
इस बार नवरात्र में मेरे अनेक नजदीकी डांडिया खेलने गए थे। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में अनगिनत स्थानों पर इसका आयोजन हुआ था । देखते ही देखते गुजरात की यह सांस्कृतिक परंपरा पूरे उत्तर भारत में छा सी गई है। वैसे देश के अन्य क्षेत्रों से आकर यहां बसे लोगों की बदौलत छठ, गणपति विसर्जन, दुर्गा पूजा, जगन्नाथ यात्रा और बैसाखी मेले जैसे आयोजन भी अब यहां आम हो चले हैं। आज से पचास साठ साल पहले तक हम उत्तर भारतीय केवक दिवाली, दशहरा, होली और रक्षा बंधन को ही बस त्यौहार समझते थे मगर अब हर दूसरे दिन कोई न कोई त्यौहार है। अब त्यौहार किसे अच्छे नहीं लगते। हमारे नीरस से जीवन को ऊर्जा, उमंग, उत्साह और सौहार्द से लबरेज़ रखने में कोई कम योगदान भी तो नहीं है इन त्योहारों का। आर्थिक चक्के को गति प्रदान करने में भी इनकी भूमिका सर्वाधिक है । लेकिन अब कुछ ज्यादा ही तो नहीं मना रहे हम लोग त्यौहार ? अखबार बता रहे हैं कि इस अक्तूबर महीने में त्यौहारों और अन्य छुट्टियों के चलते 21 दिन बैंक बंद रहेंगे । सरकारी दफ्तरों, शिक्षण संस्थानों और यहां तक कि अदालतों में भी कोई खास काम नहीं होगा इस माह । क्या आपको नहीं लगता कि मीठा कुछ ज्यादा हो गया है और अब यह कड़वा लगने लगा है ?
इस साल कुछ 51 सरकारी छुट्टियां हैं। इनमें साप्ताहिक अवकाश शामिल नहीं हैं। केन्द्र सरकार के कार्यालय जहां सप्ताह में दो साप्ताहिक अवकाश होते हैं, उन्हे मिला लें तो लगभग डेढ़ सौ छुट्टियां होती हैं। देश के हर जिले में स्थानीय छुट्टियों की भी परंपरा अलग से है ही । जातीय और साम्प्रदायिक तुष्टिकरण को उनसे जुड़े लोगों के जन्मदिन अथवा पुण्य तिथियों पर छुट्टियों की घोषणा करना भी राजनीतिक फैशन हो गया है। शिक्षण संस्थाओं में सर्दियों-गर्मियों की अलग से छुट्टियां तो अग्रेजों के समय से ही होती थीं मगर अब स्थानीय प्रशासन भी जरा सी बरसात अथवा किसी दिन ज्यादा सर्दी-गर्मी पड़ने पर छुट्टी करवाना अपना फ़र्ज़ समझने लगा है। स्कूल कालेजों की बात तो चलो फिर भी समझ में आती है मगर देश की अदालतें में भी यही चलन क्यों है ? हास्यास्पद ही लगता है कि जिस देश में 5 करोड़ 60 लाख मुकदमें लंबित हों और साढ़े पांच हजार से अधिक जजों के पद खाली हों वहां साल में औसतन दो सौ दिन से अधिक काम अदालतों में नहीं होता और बाकी सारे दिन छुट्टियों में चले जाते हैं। वैसे इन दिनों में वकीलों की हड़तालों को भी शामिल कर लेंगे तो तस्वीर और अधिक बदनुमा नज़र आयेगी।
छुट्टियों का लुत्फ यदि सारा देश उठाता हो तो फिर भी संतोष किया जा सकता है मगर सच्चाई यह है कि इन छुट्टियों का मजा केवल सरकारी और अर्ध सरकारी लोग ही उठाते हैं। किसान, मजदूर और छोटे मोटे कारोबारी तो आज भी 365 दिन खटते हैं। इससे भी कैसे इनकार किया जा सकता है कि कुछ खास लोगों की छुट्टियों की कीमत मेहनतकश तबका ही तो चुकाता है। बेशक पूरी दुनिया में साप्ताहिक अवकाश के अतिरिक्त त्यौहारों पर भी छुट्टियों का चलन है और यूरोय व अमेरिका नए साल पर और मुस्लिम देशों में ईद पर काम से परहेज़ रखा जाता है मगर फिर भी उनकी छुट्टियों की संख्या हमसे एक चौथाई भी नहीं है और ये छुट्टियों भी छोटे बड़े सभी के हिस्से आती हैं। भारत में करोड़ों अकुशल श्रमिक, खेती से जुड़ी एक तिहाई आबादी और लगभग इतने ही छोटे मोटे रोजगार से जुड़े लोग और खास तौर पर गृहणियां तो जान ही नहीं कर पातीं कि छुट्टी होती क्या बला है ? हालांकि निचले तबके के कुछ प्रतिशत लोग जरूर छुट्टियों का लुत्फ उठा सकते हैं मगर देश के ढुलमुल श्रम कानूनों के चलते वे भी उससे महरूम ही रहते हैं। वैसे हिसाब तो आप को भी लगाना चाहिए कि इस माह की 21 छुट्टियों में से आपके हिस्से कितनी आनी हैं ?

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