चोर की माँ
रवि अरोड़ा
दलितों के भारत बंद के दौरान हुई हिंसा से बेशक सैकड़ों सवाल पैदा हुए हों मगर मेरे ज़ेहन में तो सिर्फ़ एक ही प्रश्न है और वह यह कि क्या हम सचमुच लोकतंत्र के लायक हैं ? किसे नहीं पता था कि भारत बंद में हंगामे के आसार हैं और फिर भी शहर के शहर जल गए ? दस लोग मारे गए और सैकड़ों घायल हुए तथा करोड़ों की सम्पत्ति स्वाह हुई । इसकी ज़िम्मेदारी किसकी है ? सर्वोच्य न्यायालय की जिसके फ़ैसले के विरोध में यह सब हुआ अथवा राज्य सरकारों की जो दिन भर हाथ पर हाथ धरे बैठी रहीं या फिर केंद्र सरकार की जिसने समय रहते सर्वोच्य न्यायालय में पुनर्विचार याचिका दायर नहीं की और माहौल बिगड़ने का इंतज़ार करती रही ? उन तमाम राजनीतिक दलों को कितना ज़िम्मेदार माना जाए जिन्होंने इस आग में अपनी रोटियाँ सेंकीं ? बेशक यह सभी सवाल भी प्रमुख हैं और सभी सयाने इन्हें टटोलेंगे ही मगर मैं तो बस वहीं अटका हूँ कि क्या हम लोकतांत्रिक व्यवस्था के लायक हैं भी अथवा नहीं ?
माना जातिगत वैमनस्यता की जड़ें हमारे ख़ून में सदियों से हैं मगर आज़ादी के सत्तर सालों में हम इनसे कितना बाहर आए ? बेशक आरक्षण का चुग्गा हमने दलितों , आदिवासियों और पिछड़ों के समक्ष डाला मगर उसका कितना लाभ सही मामलों में वंचितों को मिला ? एसा क्या है कि आज भी गाँव देहात में दलितों की हालत तीसरे दर्जे के नागरिक सी है ? दलितों के हालात सुधारने की बजाय सभी राजनीतिक दल उन्हें केवल और केवल वोट बैंक ही बनाए हुए हैं । आज़ादी के पचास साल तक उन्हें कांग्रेस ने अपनी बपौती बनाए रखा और अब मायावती जैसे नेता उनके ठेकेदार बन गए हैं । नेताओं का दोगलापन देखिए कि सर्वोच्च न्यायालय ने अब जो आदेश दिए हैं , उत्तर प्रदेश में मायावती के शासन में वे पहले से ही लागू था और उनके शासन में बिना सीओ स्तर की जाँच के एससी एसटी एक्ट में रिपोर्ट ही दर्ज नहीं होती थी । वही मायावती अब इस मामले को लेकर दलितों के आंदोलन का ना केवल समर्थन कर रही हैं अपितु उनकी पार्टी पर बवाल को हवा देने के भी आरोप लग रहे हैं । दस लोगों की मौत के बावजूद कांग्रेस के सुर वही हैं जो गुजरात में दलितों और पटेलों के आंदोलनों को लेकर उसके लेकर थे । कर्नाटक के लिंगायतों को अलग धर्म की मान्यता देकर भी उसने बाँटो और राज करो की नीति स्पष्ट कर दी है । इस मामले में सत्तारूढ़ भाजपा सर्वाधिक दोषी है । गुजरात के पाटीदार और हरियाणा के जाट आंदोलन व राम रहीम मामले तथा पद्मावत फ़िल्म के विवाद में उपद्रवियों के समक्ष घुटने टेक कर उसने ही देश में यह संदेश दिया है कि वोट बैंक हाथ से खिसकने के डर से भाजपा दंगाइयों का कुछ नहीं बिगाड़ सकती ।नफ़रत की जो राजनीति भाजपा करती है , उसकी चपेट में अंतोगत्वा उसे आना ही था । हैरानी की बात है कि देश की पच्चीस फ़ीसदी दलित आबादी के नाराज़ हो जाने के भय से देश की एक भी पार्टी ने इस आंदोलन को नाजायज़ नहीं ठहराया और ना ही औपचारिकता को हिंसा की निंदा की ।
सबको मालूम है कि इस आंदोलन के दौरान हुई हिंसा में अब खानापूर्ति ही होगी । अधिकांशत अज्ञात भीड़ के नाम मुकदमें होंगे और हज़ारों पेज की रिपोर्ट बनेंगी । ज़ाहिर है कि कोई गवाही भी नहीं होगी अतः दोषियों को सज़ा का तो सवाल ही नहीं । पब्लिक को भरमाने को छुटपुट गिरफ़्तारियाँ होंगी जिनकी हफ़्ते दो हफ़्ते में ज़मानत हो जाएगी । लोकतंत्र का इस तरह मखौल हम सब मिल कर उड़ाएँगे । उस लोकतंत्र का जिसने हमें अधिकार तो ख़ूब दिए मगर कर्तव्य एक भी नहीं समझाया । कई बार बुज़ुर्गों की बात सही ही लगती है कि अंग्रेज़ों के राज में एसा क्यों नहीं होता था ? क्या इस लिए कि तब वोट की राजनीति नहीं थी ? यानि फ़साद की सारी जड़ यही राजनीति है ? तो फिर फिर उस पुरानी कहावत में क्या ग़लत है कि चोर को नहीं चोर की माँ को मारो , जिसने उसे जन्म दिया । तो आइए आज मिलकर चोर नहीं तो कम से कम चोरों की माँओं की ही शिनाख्त कर लें।