चोचलिस्टों की दुनिया

शायद राजकपूर की फ़िल्म ‘जिस देश में गंगा बहती है ‘ का यह डायलोग है जिसने अनपढ़ बने राजकपूर किसी से पूछते हैं की क्या आप ‘ चोचलिस्ट ‘ हो जो दुनिया बरोब्बर करना चाहते हो ?….फ़िल्म में सोशलिस्ट के लिए बोला गया शब्द चोचलिस्ट मन में कहीं गहरे से बैठ गया …यह वही दौर था जब सामाजिक सरोकार हर युवा का पैशन थे और मुझ जैसे लाखों लोग मार्क्सवाद की और झुक गए …दरअसल दुनिया बरोब्बर करना सबका सपना सा बन गया था ….मगर अब जेएनयू प्रकरण में कथित मार्क्सवादियों द्वारा देश विरोधी नारे लगाना दिल को हिला सा गया …अरे ये कैसे कम्युनिस्ट हैं …ये कौन से चोचलिस्ट हैं और कैसे अमीर ग़रीब के बीच की खाई मिटा रहे हैं ? कैसे दुनिया को बरोब्बर कर रहे हैं ?

मैं गवाह हूँ कि जेएनयू कैम्पस दशकों से मार्क्सवादियों और समतावादियों को खाद पानी देता रहा है । या यूँ कहिए की दुनिया में विचार और सोच का मतलब ही जब मार्क्सवाद था तब यह कैम्पस इस विचार के पक्षधरो का मक्का मदीना सा ही था । दुर्योग कहिए या कुछ और मगर मार्क्सवादियों की दुनिया भर में सरकारें विफल हो गईं । चुनांचे उँगलियाँ मार्क्सवाद के विचार और सिद्धांत पर भी उठ रही हैं । इसी दौरान विचार के नाम पर इस्लामिक कट्टरपंथियों ने दुनिया को हाँकने की कोशिशें शुरू की हैं और इस मामले में वे कामयाब भी हुए हैं की दुनिया भर के तमाम लोग या तो उनके साथ हैं या उनके ख़िलाफ़ । उधर बदक़िस्मती से हमारे देश में हिंदुत्व नाम का एक कथित विचार भी अब पोषित हो रहा है। सच कहूँ तो हिंदुत्व की जिस सोच को विचार की संज्ञा दी जा रही है , वह भी कोई विचार नहीं वरन क्रिया की प्रतिक्रिया भर है । वर्ष 1923 में आई सावरकर की किताब ‘हिंदुत्व ‘ से पहले हिंदुत्व शब्द लोग जानते भी ना थे । तबतक हिंदु एक जीवन शैली भर थी जो कमोवेश दुनिया भर में अपने सर्वे भवन्तु सुखीना जैसे गहरे मानवतावादी नज़रिए के चलते अनोखी और बेमिसाल थी । मगर प्रतिक्रियावादियों के हाँथों में आकर अब यह धर्म बनकर कट छँट सा गया है और कथित हिंदुत्ववादी अब इसे धर्म बनाकर उसके नम्बरदार बन गए हैं ।

दुर्भाग्य से जेएनयू कैम्पस अब कथित मार्क्सवादियों के साथ साथ इस्लामिक मूव्मेंट और इन हिंदुत्ववादियों को भी खाद पानी दे रहा है । क्योंकि विचार सही हो या ग़लत हमारे यहाँ उसके लिए जगह निकल ही आती है । मेरा मानना है की इस परिसर की हवाओं में ही विचारों को पोषित करने की ताक़त है और यही कारण है की यहाँ से एक से बढ़ कर एक विद्वान तैयार होकर निकले । मगर अब क्या हो रहा है ? अपने ही मुल्क को गाली देना कौन सा विचार है ? विचार के नाम पर क्या क्या ख़ुराफ़ात बर्दाश्त की जायें ?

साफ़ बात यह है की हाल ही के समय में कुछ देशविरोधी ताक़तो ने जेएनयू कैम्पस की शक्ति का जो दुरुपयोग शुरू किया है वह लोकतंत्र और बोलने की आज़ादी का मज़ाक़ भर है और इसे सहन नहीं किया जाना चाहिए । मेरे ख़याल से जेएनयू प्रशासन और सरकार के साथ साथ यहाँ के पूर्व छात्रों को भी तुरंत आगे आना चाहिए । कहीं एसा ना हो की देश विरोधी विचारों को कुचलने के नाम पर विचार और सोच के विरोधी उस विशाल बरगद को ही गिरा दें जहाँ तरह तरह के विचार जीवन पाते हैं । चीज़ों के सरलीकरण के दौर में विवेकहीन लोग यदि ताक़तवर हों तो सबसे पहले यही तो करते हैं ।

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