गर्दभ राग
रवि अरोड़ा
बचपन एक फिल्म देखी थी- मेहरबान । ज्यादा तो कुछ याद नहीं मगर इतना जरूर स्मृतियों में है कि हास्य कलाकार महमूद इस फिल्म में एक गाना गाता है-मेरा गधा गधों का लीडर, कहता है के दिल्ली जाकर,सब मांगे अपनी कौम की मैं, मनवा कर आऊंगा
नहीं तो घास न खाऊंगा । आप सोच रहे होंगे कि चुनाव की बेला है और इस गीत के माध्यम से मैं किसी नेता पर तंज कसने को इस गीत का सहारा ले रहा हूं । नहीं जनाब, आप गलत सोच रहे हैं । यह गाना तो मुझे वह खबर पढ़ कर याद आया जिसमें बताया गया है कि हमारे देश में गधों की संख्या में तेजी से गिरावट हो रही है और देश में फिलवक्त 1 लाख 20 हजार गधे ही बचे हैं । हालांकि यह आंकड़ा भी साल 2019 में हुई पशु गणना का है और साल 2012 से 2019 के बीच गधों की तादाद में दर्ज की गई 61 फीसदी की गिरावट को ही यदि मानक मानें तो इस समय देश में बामुश्किल 89 हजार गधे ही बचे होंगे ।
अजब विडंबना है , एक ओर आदमी गधत्व को प्राप्त हो रहा है और दूसरी ओर गधे विलुप्तता की कगार पर हैं । जहां नजर घुमाओ आदमी के नाम पर गधे ही गधे दिखाई पड़ते हैं मगर जब पशु गणना होती है तो ये सारे गधे बिला जाते हैं । सरकारी दफ्तर तो जैसे बने ही गधों के लिए हैं और हर कुर्सी पर गर्दभ राज विराजमान हैं मगर गिनती के समय उनकी ओर कोई मुंह भी नहीं करता । हालांकि मैं नहीं कह रहा मगर लोगबाग तो कहते ही हैं कि हमारी विधानसभाओं और संसद भी गधों की बड़ी पनाहगाह हैं मगर गिनती उनकी भी नहीं होती । वहां बैठे लोग ऐसी ऐसी स्कीमें लाते हैं कि अच्छा खासा इंसान गधा बन जाता है । चलिए लगे हाथ चुनाव की बात भी छेड़ देता हूं । मतदान सिर पर आ गए हैं और हमारे नेताओ को घर घर माथा टेकने जाना पड़ रहा है । बेशक बाद में वे फिर हमें नहीं पूछेंगे मगर वक्त का ऐसा तकाज़ा है कि वे गधे को भी बाप बनाने को तैयार हैं । उसका तो जैसे एक ही मंत्र है- अल्लाह मेहरबान तो गधा पहलवान । वे अच्छी तरह जानते हैं कि सारा खेल टाइमिंग का है । आज वक्त पब्लिक का है , कल फिर नेताओं का होगा । सही वक्त पहचान लिया तो गधा भी घोड़ा वरना घोड़ा भी गधा साबित हो जाता है । हमारे नेताओं ने यह भली भांति सीख लिया है कि काम निकल जाने पर गधे के सिर से सींग की तरह से कैसे गायब हुआ जाता है । बेशक कहे से धोबी गधे पर न चढ़ता हो मगर अब तो वे उन्हे भी सवारी कराने को तैयार हैं जिन्हें सदा गधा ही समझा । हालांकि चुनाव बाद ये हमें गधों की तरह सुबह शाम लतीयाएंगे मगर फिलवक्त तो ये हमारी दुलत्ती भी अहो भाग्य कह कर खाने को तैयार हैं । बेशक आज इन्हे हम पर इतना लाड़ आ रहा है कि गधा मरे कुम्हार का और धोबन सती होए मगर बाद में तो ये यही कहेंगे कि इन गधों को कुछ समझाया नहीं जा सकता ।
अब पता नहीं इस गर्दभ पुराण में गधे हम हैं या हमारे नेता ? बेशक हम इन्हें यह सेहरा पहनाएं मगर मन ही मन तो ये लोग हमें ही यह उपाधि दिए बैठे हैं । अब देखिए न , वोट की खातिर ऐसी ऐसी बातें कर हमें लुभा रहे हैं जैसे हम निरे गधे ही हैं । सच कहूं तो उन्हें हम गधा साबित कर नहीं पाएंगे । हां हम पैदायशी गधे हैं यह वे कदम कदम पर साबित कर देंगे । अब तक का इतिहास तो यही कहता है । वोट पड़ने की उल्टी गिनती शुरू हो गई है । बस कुछ दिन ही बचे हैं हमारे इस दामाद गिरी के । गधे के चोले में लौटने का हमारा वक्त बस आने ही वाला है । यही वक्त है हम खुल कर असली गधों की शिनाख्त करें । संभव हो तो उन्हें उनकी वे तमाम दुलत्तियां भी याद दिलाएं जो पिछले पांच सालों में हमने खाई हैं । यदि हो सके तो थोड़ी देर को गधत्व का ताज स्वीकार भी कर लें और उन्हें ही अपनी दुलत्ती से नवाजें जो आपकी नजर में असली गधे हैं ।