गंगा में तैरते हुए सवाल
रवि अरोड़ा
सुबह का वक्त था और मैं परिजनों समेत प्रयाग राज संगम पर एक बोट में सवार था । आसपास से दर्जनों बोट और नाव गुज़र रही थीं। अनेक नावों पर सवार महिलाएं तो सामूहिक रूप से कुछ गीत भी गा रही थीं। हालांकि साफ साफ शब्द तो सुनाई नहीं दिए मगर इतना जरूर आभास हो रहा था कि ये सभी महिलाएं गंगा मईया के गुणगान कर रही हैं। हाल ही में देखा यह बड़ा ही मनोहारी दृश्य था मगर मन तो इसका आनंद लेने के बजाए जैसे सवालों के ही हवाले रहा । आखिर ये महिलाएं कौन हैं और कहां से आई हैं ? यकीनन इन महिलाओं के पूर्वज भी इसी तरह गंगा के निकट पहुंच कर भाव विभोर हो उठते होंगे और उन्होंने ही इन गीतों की रचना की होगी मगर क्या इस नई पीढ़ी ने भी कुछ नए गीत तैयार किए हैं ? क्या इनकी आने वाली पीढ़ी भी गंगा किनारे पहुंच कर इसी तरह गीत गायेगी ? बेशक नई पीढ़ी के लोग भी गंगा स्नान को आयेंगे और शायद इनसे भी अधिक संख्या में आयेंगे मगर क्या उनकी इन गीतों में रुचि होगी अथवा क्या उन्हें ये तमाम गीत याद होंगे ? क्या अनजान लोगों के बीच यूं ऊंची आवाज में इन गीतों को गाना उन्हें अरुचिकर तो नहीं लगेगा ? वगैरह वगैरह । अचानक गंगा और यमुना के संगम पर अपनी संस्कृति के एक पक्ष के विलुप्तिकरण का भय भी मुझे अपनी बोट के साथ तैरता नजर आया ।
बचपन में तीज पर महिलाओं को गीत गाते हुए खूब देखा था । पेड़ों पर झूले डलते थे और मंद मंद वर्षा में गीतों की स्वर लहरियां गूंजाएमान होने लगती थीं मगर अब यह सब नहीं दिखता । तीज पर झूले नहीं आलीशान मेले लगते हैं और अस्थाई दुकानों पर सामान की खरीद फरोख्त के बीच गीत गाने का काम डीजे के जिम्मे होता है। ऋतुओं के अनुरूप लोकगीत भी कहीं सुनाई नहीं देते । सोहर, बिरहा, कजरी, चैती और रसिया जैसे गीत गाना तो दूर उनके नाम तक नई पीढ़ी नहीं जानती । शादी ब्याह में ढोलक की थाप पर गीत गाने वाली चाचियां, मौसियां और बुआएं भी कहीं गुम हो गई हैं और खूब खर्चा कर प्रोफेशनल सिंगर बुलाने पड़ते हैं। कुआं पूजन के समय भी बैंड बाजे वाले कुछ गाएं तो गाएं वरना आधुनिक महिलाओं के लिए बस सजना संवरना ही इस रस्म के लिए काफी है। ले देकर करवा चौथ का गीत बचा है वो भी आधा अधूरा ही महिलाओं को याद रहता है। मंदिरों में भी प्रोफेशनल सिंगर भजन गाते हैं और श्रद्धालु ताली बजाने से आगे नहीं बढ़ पाते । तीज त्योहार भी जैसे बाजार के हवाले हैं और केवल गिफ्ट देने लेने तथा पीने पिलाने तक ही महदूद होकर रह जाते हैं।
आधुनिक युग में बहुत कुछ तेजी से पीछे छूट रहा है। खानपीन, पहनावा, रहन सहन, आचार विचार और न जाने क्या क्या बदल रहा है। अनेक नई चीजें आई हैं और अनेक पीछे भी छूटी हैं। इससे कोई इनकार नहीं कि बदलाव किसी भी सभ्यता के विकास का पहला नियम है और इसे कतई अन्यथा भी नहीं लिया जाना चाहिए मगर फिर भी कभी कभी कुछ चीजों का गुम होना सालता तो है ही । यकीनन तकनीक ने हमारे जीवन को बेहद सुविधाजनक बनाया है और उसका शुक्रगुजार भी होना चाहिए मगर तकनीकी युग की भागदौड़ हमसे जो ले रही है, वह याद तो आते ही हैं। हाथ से बहुत कुछ बड़ी तेजी से फिसल रहा है । गीत के नाम पर अब केवल फिल्मी गीत ही हमें याद हैं और न जाने क्यों लोक गीतों को भूलने की अजब सी जल्दबाजी में हम सब मुब्तला हैं। गंगा की धार के बीच गंगा मईया के गीत सुनते हुए मन में यह सवाल भी था कि क्या ये गीत मैं अब आखरी बार सुन रहा हूं ?