क्या कोई बताएगा
रवि अरोड़ा
दो नवम्बर 1984 । शाम के लगभग पाँच बजे थे । मैं अपने पत्रकार और लेखक मित्र आलोक यात्री के साथ एक अन्य मित्र के यहाँ बैठा था । चूँकि दो दिन पूर्व ही प्रधानमंत्री इंद्रा गांधी की हत्या हुई थी और सदमे से पूरा देश थम सा गया था सो हम लोग भी हादसे पर चिंता-चर्चा में मशगूल थे । तभी बाहर कुछ शोरगुल हुआ । आलोक और मैं बाहर निकले तो देखा दो ढाई सौ लोगों की भीड़ निकट की एक बड़ी सी कोठी को घेरे खड़ी है । नवरंग सिनेमा के मालिक सरदार जी की यह कोठी हमारे कविनगर की सबसे सुंदर कोठी मानी जाती थी । नज़दीक गए तो देखा कि भीड़ उस कोठी को जलाने का प्रयास कर रही है । क़द काठ में बेहद साधारण होने के बावजूद मैं और आलोक भीड़ के सामने डट गए और उन्हें एसा करने से रोकने लगे । तभी उनका नेता जो कि कांग्रेस का पार्षद था , सामने आया और उसने हम दोनो को दौड़ा लिया । अब आप भी कहेंगे कि 84 के दंगों की आज अचानक मुझे याद क्यों आई ? दरअसल हाल ही में इन दंगों की दो ख़बरें फिर सुर्ख़ियो में आई हैं । दिल्ली पटियाला कोर्ट ने महिपालपुर में दो सिखों की हत्या के मामले में दो लोगों को दोषी क़रार दिया है और एक अन्य मामले में एक पीड़िता ने सज्जन कुमार की दंगाई भीड़ का नेतृत्व करने वाले के रूप में पहचान कर ली है । अब आप ही बताइये ये ख़बरें पढ़ कर कम से कम उस आदमी का तो मन अतीत में नहीं लौटेगा ही जो ख़ुद उस दंगे में बाल बाल बचा हो ।
चलिए फिर वहीं लौटता हूँ । पहलवान टाइप अपने नेता को हमारे पीछे भागते देख पूरी भीड़ भी हमारे पीछे दौड़ पड़ी । बस किसी तरह जान बच गई । अगले दिन कवि नगर के ही जी ब्लॉक गुरुद्वारे में पाठी की नृशंस हत्या हो गई । शाम को नासिरपुर फाटक के पास चक्की वाले दो सिख भाइयों को गले में टायर डाल कर जला दिया गया । ख़बरें आनी शुरू हुई तो फिर जैसे थमी ही नहीं । चार पैसे कमाने के अलावा कुछ भी न करने वाले मेरे शहर में दो दर्जन से अधिक लोग मार दिए गए । सैंकड़ों दुकानें और घर जलाए गए । करोड़ों की लूटपाट हुई सो अलग । इस नरसंहार के 18 साल बाद अल्पसंख्यक आयोग के माँगने पर ज़िला प्रशासन ने स्वीकार किया कि दंगे में कुल 19 लोग मारे गए थे और 110 एफआईआर दर्ज हुई थीं । चूँकि सभी रिपोर्ट अज्ञात लोगों के ख़िलाफ़ थीं अतः एक भी गिरफ़्तारी नहीं हुई । वैसे भीड़ का नेतृत्व करने वालों में से एक महाशय बाद में विधायक बने और एक मंत्री । दिल्ली के लोग मेरे शहर के लोगों से अधिक बहादुर निकले और उन्होंने हर किशन लाल भगत , जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार जैसों के नाम तो लिए मगर हम वह भी न कर सके ।
सिखों के नरसंहार में लगभग चार हज़ार लोग देश भर में मारे गए । अकेले दिल्ली का आँकड़ा ढाई हज़ार के पार का है । इस दंगे की हज़ारों कहानियाँ हैं । सभी दर्दनाक हैं । मगर सबसे दर्दनाक कहानी यह है कि 34 साल बाद भी हम पीड़ितों के साथ न्याय नहीं कर सके । दिल्ली में कुल 650 मामले दर्ज होते हैं और एसआईटी केवल 293 मामलों की जाँच करती है और फिर 241 की फ़ाईलें बंद कर दी जाती हैं । सर्वोच्च न्यायालय हड़काता है तो दूसरी एसआईटी गठित हो जाती है और 186 मामले फिर खुलते हैं । अब बताया जा रहा है कि बावन मामलों में चश्मदीद गवाह मिल गए हैं । वैसे यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि अस्सी फ़ीसदी आरोपी और शिकायतकर्ता न्याय की इंतज़ार करते करते दुनिया से जा चुके हैं । ख़ुद को भरमाने के लिए हमने मुहावरे घड़ रखे हैं कि जस्टिस डिलेड जस्टिस डिनाइड मगर हम जानते हैं कि एसी बातों में हमारा कोई विश्वास नहीं है । यदि होता तो देश के मुँह पर कालिक से पुते इस नरसंहार पर सचमुच गम्भीरता से हमने कुछ किया होता । चलिए दिल्ली तो राजधानी है , यहाँ फिर भी कुछ न कुछ होता दिखता है मगर अन्य शहरों में क्या हुआ ? कानपुर में क्या हुआ जहाँ डेढ़ सौ लोगों की हत्या उस दौरान हुई ? मेरे अपने शहर में इन हत्याओं की जाँच कहाँ तक पहुँची ? क्या कोई बताएगा ? कोई है ?