क्या अलविदा होंगे गोरखा
रवि अरोड़ा
हालांकि अनगिनत बार देहरादून गया हूं मगर नालापार स्थित एक ऊंची पहाड़ी पर बने बलभद्र खंगला युद्ध स्मारक पर जाना पहली बार ही हुआ । साल 1814 में इसी पहाड़ी पर गोरखाओं और अंग्रेजों के बीच भीषण युद्ध हुआ था और मात्र छह सौ गोरखाओं ने दस हजार से अधिक अंग्रेज अफसरों और सैनिकों के छक्के छुड़ा दिए थे । खास बात यह थी कि ब्रिटिश सेना तोपों और राइफलों से लेस थी जबकि गोरखाओं के पास मात्र अपना परंपरागत हथियार खुकरी ही था । इस युद्ध में गोरखाओं ने ब्रिटिश कमांडर समेत एक हजार से अधिक दुश्मनों को मौत के घाट उतार दिया था। अपने विरोधी की इस बहादुरी से अंग्रेज इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने शहीद हुए गोरखाओं और उनके सेनानायक बलभद्र की स्मृति में यहां स्मारक ही बनवा दिया । यह दुनिया का इकलौता स्मारक है जिसे विजयी सेना ने अपने दुश्मन को सम्मान देने के लिए बनवाया है।
इस युद्ध में गोरखाओं के कौशल पर मोहित होकर अंग्रेजों ने नेपाली शासक से समझौता कर लिया और अपनी फौज में मार्शल रेस के रूप में बाकायदा गोरखाओं की भर्ती भी शुरू कर दी। अंग्रेजों ने गोरखाओं की बहादुरी का इस्तेमाल 1857 की क्रांति में भारतीय स्वाधीनता सेनानियों के खिलाफ और दोनों विश्व युद्धों में भी किया । गोरखाओं की बहादुरी से प्रभावित होकर स्वयं हिटलर ने उन्हें दुनिया का सबसे बड़ा लड़ाका स्वीकार किया था। आजादी के बाद भी अंग्रेज गोरखा सैनिकों को अपने साथ इंग्लैड ले जाना चाहते थे मगर भारत, नेपाल और ब्रिटेन के बीच हुए त्रिपक्षीय समझौते के तहत उस समय की दस गोरखा रेजीमेंट में से मात्र चार ही ब्रिटेन को मिलीं और छह भारत के हिस्से आईं । चीन और पाकिस्तान से हुए युद्धों में भी इन रेजीमेंट्स ने भारत के लिए गजब के शौर्य का प्रदर्शन किया । भारतीय सेना में उनके महत्व को इसी से समझा जा सकता है कि भारत के फील्ड मार्शल रहे जनरल सैम मानेकशॉ उनके बाबत कहा करते थे कि यदि कोई कहे कि वह मौत से नहीं डरता तो वह या तो झूठ बोल रहा है अथवा गोरखा है।
वर्तमान में भारत में 43 गोरखा बटालियन हैं और उनमें नई भर्ती के लिए 70 फीसदी नेपाल से शेष 30 फ़ीसदी भारतीय पहाड़ी क्षेत्रों के गोरखाओं से चुना जाता है। भारतीय फौज में भर्ती होने के लिए नेपाल में भी बड़ा क्रेज है और गोरखा लड़ाकाओं का बड़ा हिस्सा सारे साल भारतीय सेना में भर्ती होने की तैयारी करता है मगर दुर्भाग्य से अब इस पर विराम लग गया है। यह सब हुआ है भारत की अग्निवीर योजना के चलते । केवल चार साल के लिए सेना में शामिल होने को अव्वल तो गोरखा ही तैयार नहीं हैं और ऊपर से वहां की सरकार ने भी इसे भारत, ब्रिटेन और नेपाल के बीच सेना की भर्ती को लेकर हुए त्रिपक्षीय समझौते का उल्लंघन बता कर इस पर रोक लगा दी है। नतीजा आने वाले वर्षों में शौर्य का दूसरा नाम गोरखा रेजीमेंट्स और गोरखा राइफल्स भारत में होंगी तो सही मगर उनमें असली लड़ाका कौम गोरखा ही नहीं होंगे । हो सकता है हमारी सरकार के लिए यह चिंता का कोई विषय न हो मगर मुझ जैसे वे हजारों लाखों लोग जरूर होंगे जो इस ख़बर से परेशान हैं कि ताजा हालात का लाभ उठा कर हमारा दुश्मन चीन अब नेपाली गोरखाओं को अपनी सेना पीएलए में भर्ती करने को लार टपका रहा है और जमीनी स्तर पर उसने इसके लिए नेपाल में काम भी शुरू कर दिया है।