कोल्हू में आदमी
कोल्हू में आदमी
रवि अरोड़ा
सातवें व आठवें दशक का दौर था जब मेरे शहर गाजियाबाद और उसके आसपास के औद्योगिकीकरण को ट्रेड यूनियन दीमक बुरी तरह चाट रहा था । तमाम छोटी बड़ी फैक्ट्रियों के गेट पर लाल झंडा टंगा रहता था और सीटू, एटक, इंटक और अनेक अन्य छोटी बड़ी ट्रेड यूनियन कभी भी किसी भी फैक्ट्री में हड़ताल करवा देती थीं और यह सब हो रहा था तब के श्रम कानूनों के संरक्षण तले । इस आफत से बचने को चालाक उद्यमियों ने गुंडों और ट्रेड यूनियंस के ही भ्रष्ट नेताओं को पालना शुरू कर दिया और इसी के चलते शहर में अनेक राज नेताओं और श्रमिक नेताओं की हत्याएं तक हुईं। श्रमिकों के हित साधने के लिए शुरू हुईं ट्रेड यूनियंस की इन्हीं खुराफातों के चलते शहर के अनेक बड़े और नामी गिरामी उद्योग हमेशा हमेशा के लिए बंद हो गए और बाद में इन उद्योगों की भूमि पर अनेक इंजीनियरिंग कॉलेज और कालोनियां बस गईं । साल 1991 में जब नरसिम्हा राव की सरकार में अर्थव्यवस्था के खुलेपन का दौर शुरू हुआ तो विदेशी पूंजी को आकर्षित करने के लिए श्रम कानूनों में ढील दी गई और ट्रेड यूनियंस के खौफ से आजाद होकर इस पूरे परिक्षेत्र में पुनः औद्योगिक बहार प्रारंभ हुई । श्रम कानूनों में हुए बदलाव से रोजगार तो बढ़े ही साथ ही एक तरह से शहर की तरक्की भी हुई । बेशक सातवें और आठवें दशक का दौर उद्योगों के लिए आपात काल जैसा था मगर फिर भी श्रम की महत्ता और श्रमिकों के लिए तो वह स्वर्ण काल ही कहलाया जाएगा । उधर , आज बेशक उद्योगों के लिए स्वर्णिम दौर है मगर इसे श्रमिकों के लिए भी उतना ही मुफीद कहना जरा कठिन होगा । यकीन न हो तो देश की जानी मानी कम्पनी एलएंडटी के चेयरमैन सुब्रमण्यम के उस बयान को ही देख लें जिसमें वह अपने कर्मचारियों का आह्वान कर रहे हैं कि वे लोग हफ्ते में 90 घंटे कार्य करें। उन्होंने यह भी कहा कि आप लोग घर बैठ कर अपनी पत्नी की शक्ल कब तक देखोगे ? उन्होंने इस बात पर भी अफसोस जाहिर किया कि चाह कर भी मैं अपने कर्मचारियों से इतवार में कार्य नहीं ले पा रहा ।
बेशक जरा जरा सी बात पर उद्योगों में हड़ताल करवाने की पैरवी कतई नहीं की जा सकती मगर इस बात की भी हिमायत कैसे की जाए कि अपने कर्मचारियों का खून तक चूस लिया जाए ? उस दौर में जब लगभग देश के दो तिहाई कर्मचारियों को श्रम कानूनों का संरक्षण था, श्रम का महत्व पूंजी से अधिक नहीं तो कम भी नहीं था मगर आज जब देश के 93 फीसदी कामगार किसी भी कानूनी संरक्षण से बाहर हैं तो 51 करोड़ की बड़ी आबादी उद्यमियों की हायर एंड फायर की नीति के चलते खौफ के साए में क्यों जीवन गुजार रही है ? कोरोना की आपदा में जब ये लाखों लाख श्रमिक अपने अपने घरों को पैदल चले तो इनका कोई वाली वारिस क्यों नहीं दिखा ? खाली पेट और खाली जेब ये लोग अपने गंतव्य तक पहुंचे भी या न नहीं, यह जानना उनके नियोक्ता की जिम्मेदारी क्यों नहीं थी ? हालांकि कहने सुनने को अभी भी देश में श्रम कानून हैं और नई श्रम नीति 2020 के तहत आज भी सप्ताह में किसी भी कर्मचारी से 45 घंटे से अधिक काम नहीं लिया जा सकता मगर फिर भी देखिए बड़े उद्योगपति खुले आम और आए दिन काम के घंटे कभी 70 और कभी 90 करने की वकालत करते हैं। पहले इंफोसिस के नारायणन मूर्ति और अब एलएंडटी के सुब्रमण्यम का बयान तो सर्वाधिक चर्चा में है। इन बड़े उद्यमियों से कोई नहीं पूछ रहा कि वे लोग बार बार काम के घंटे बढ़ाने की बात तो करते हैं मगर अपने कर्मचारियों के वेतन बढ़ाने के मामले में क्यों चुप्पी साध लेते हैं ? इसी बेहूदा बयान के बाद ही खुलासा हुआ कि खुद सुब्रमण्यम का अपना वेतन करीब पांच करोड़ रुपया मासिक है और पिछले साल के मुकाबले इस साल उसमें 45 फीसदी की बढ़त हुई है। जबकि उनकी कर्मचारियों की वेतन वृद्धि सालाना मात्र सवा फीसदी ही है । हैरत नहीं कि देश के मात्र एक फीसदी इन बड़े उद्यमियों को लूटखसोट की खुली छूट देने वाली सरकार और उसके तमाम मंत्री इस मुद्दे पर चुप्पी साधे बैठे हैं। बेशक मुल्क में आज कोई भी ऐसा चाहेगा कि पिछली सदी का वह दौर लौटे जब उद्यमी खौफ के साए तले जीते थे मगर इस दौर पर भी तो थोड़ा बहुत अंकुश लगाया जाए जब आदमी को आदमी ही नहीं समझा जा रहा और धन पशु अपने लाभ के लिए उसे जानवर की तरह जोतने पर ही तुले हुए हैं ।