कोरोना गया तेल लेने
रवि अरोड़ा
इस बार रामलीलाएँ नहीं हुईं । बहुतों के दिल टूटे । सबसे अधिक निराश वे हुए जिनकी रोज़ी-रोटी ही इन रामलीलाओं और उसके मेलों से चलती है । लाइट, टेंट व झूले वाले, करतब और तमाशा दिखाने वाले तथा तमाम तरह के छोटे-बड़े दुकानदार साल भर इंतज़ार करते हैं रामलीला के दिनो का । मेले-ठेले का शौक़ीन आम आदमी भी बड़ी बेताबी से इन दिनो की बाट जोहता है मगर इस बार हर कोई हताश हुआ । उन लोगों के तो चेहरे ही लटक गए जो रामलीला कमेटियों के पदाधिकारी अथवा सदस्य हैं । रामलीला के बहाने पंद्रह दिन तक उनकी पूरी मौज रहती थी । हर दस पाँच मिनट में मंच पर आकर लोगों को अपनी शक्ल दिखाने का मौक़ा मिलता था । अफ़सरों और नेताओं की सोहबत रहती थी सो अलग । मगर हाय रे कोरोना ! इस बार सबका दिल तोड़ दिया।
वैसे तो होली, दिवाली, दशहरा व अन्य सभी त्यौहार अब अपना मूल स्वरूप खोकर बिज़नस मोडयूल भर हो चुके हैं मगर इससे फ़र्क़ भी क्या पड़ता है ? हाँ परम्परावादियों की तरह इन त्योहारों के कुछ पुरातन अर्थ ढूँढने बैठें तो बात कुछ और है । अब अखबारी भाषा के अनुरूप सचमुच ही यदि हम रावण के पुतले फूंके जाने को बुराई पर अच्छाई की जीत जैसा कुछ मानने लगें तो हमारा वाक़ई कुछ नहीं हो सकता । सबको पता है कि साल में एक बार पुतला फूँकने से न तो अच्छाई की जीत होती है और न ही बुराई का अंत । हाँ इस बहाने पुतले बनाने वालों को रोज़गार ज़रूर मिल जाता है । वैसे यह संतोष का विषय नहीं है क्या कि इन रामलीलाओं से देश भर में लाखों के पेट पलते हैं ? बुज़ुर्ग कुछ सोच कर ही तो कहते हैं कि हर वह काम अच्छा है जिससे चार आदमियों का भला हो । अब हिसाब लगायें कि ये दशहरा का त्यौहार इस बार भी न जाने कितनो का भला करके जाता है मगर इस मुए कोरोना ने सबके पेट पर लात मार दी ।
सबको पता है कि कोरोना से बड़ा है देश के समक्ष आन खड़ा हुआ आर्थिक संकट । मूर्खतापूर्ण तरीक़े से लगे लॉक़डाउन के चलते पूरे देश की अर्थव्यवस्था चौपट हो गई है । ग़रीब और मध्यवर्गीय आदमी का जीना मुहाल है । अर्थशास्त्री कह रहे हैं कि इस संकट से उभरने का एक ही तरीक़ा है और वह यह कि लोगों के हाथ में पैसा पहुँचे और वे उसे ख़र्च करें । बेशक इस दिशा में कुछ सरकारी प्रयास हुए हैं मगर ये सभी नाकाफ़ी साबित हुए हैं । त्योहारों पर रुपये का चक्का तेज़ी से घूमता है । रामलीलाएँ भी इस काम में हाथ बँटाती हैं मगर अनुमति नहीं मिलने से इस साल देश भर में रामलीलाएँ नहीं हुईं । जहाँ हुईं भी वहाँ भी सब कुछ प्रतीकात्मक था और उनसे रुपये का चक्का घूमने में कोई मदद नहीं मिली ।
मेरे कहने का कदापि यह अर्थ नहीं है कि सरकार को रामलीलाएँ करने की अनुमति देनी चाहिये थी । आज जब महामारी अपने चरम पर है तब ऐसी माँग की भी नहीं जानी चाहिये । इस माहौल में एक ही स्थान पर सैंकड़ों-हज़ारों लोगों की भीड़ एकत्र करने से बड़ा कोई गुनाह तो हो ही नहीं सकता । मगर अपने मन में एक सवाल है कि यह बात बिहार की चुनावी रैलियों पर लागू क्यों नहीं हो रही ? वहाँ कैसे नेता हज़ारों-लाखों लोगों को एक साथ जमा कर अपनी ताक़त का प्रदर्शन कर रहे हैं ? पार्टी कोई भी होता , नेता कोई भी हो , सभी बावले हुए घूम रहे हैं । अब किसी को कोरोना नहीं दिख रहा । ख़ुद मास्क भी पहन रहे हैं और लोगों से दूर दूर भी खड़े होते हैं । सेनीटाईज़र की बोतलें भी दिन भर ख़ुद पर ज़रूर उडेल रहे होंगे मगर रैली में आई भीड़ का किसी को कोई ख़याल नहीं । काश इन रामलीलाओं से भी नेताओं को थोक के भाव वोट मिलते तो मेरा दावा है कि रामलीलाओं का मंचन भी ये लोग ख़ुद ही करते । वोट की ख़ातिर हर कोई कहता- कोरोना गया तेल लेने ।