कुछ कहता है अब्दुल बिगाड़ू

रवि अरोड़ा
किसी गाँव में अब्दुल नाम एक आदमी रहता था जिसका प्रिय शग़ल था लोगों के काम बिगाड़ना । उसके बारे में मशहूर था कि वो किसी को खाता-कमाता नहीं देख सकता । नतीजा गाँव में उसका नाम पड़ गया- अब्दुल बिगाड़ू । गाँव से ऊपर उठ कर पूरे मुल्क की बात करें तो यहाँ भी एक से बढ़ कर एक अब्दुल बिगाड़ू हैं जो दूसरों को फलता-फूलता देख कर टोका टाकी करते हैं । अन्य लोगों की क्या कहूँ मुझे स्वयं अपने पर ही कई बार शक होता है । अब देखिए न मुझे आजकल देश के तमाम जनप्रतिनिधियों की कमाई चुभ रही है । क्या करूँ ये लोग दावा तो एसे ही करते हैं कि जैसे समाज के सच्चे सेवक यही हैं मगर हक़ीक़त यह है कि इनके हिस्से तो केवल मेवा ही मेवा आता है । आज जब देश कोरोना संकट से गुज़र रहा है और देश के सामने जन स्वास्थ्य के साथ साथ आर्थिक चुनौती भी मुँह बाये खड़ी है तब एसे में मेवे की इस बंदर बाँट पर क्या कड़ा अंकुश नहीं लगना चाहिये ?
बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर अपनी पार्टी की बैठक में जब भी आते उनका कुर्ता फटा होता । नतीजा पार्टी की कार्रवाई से पहले अध्यक्ष चंद्रशेखर को झोली फैला कर सब सदस्यों से कर्पूरी ठाकुर के लिए नए कुर्ते के पैसे एकत्र करने पड़ते । कर्पूरी ठाकुर ही क्यों , आज़ादी के समय और उसके कई दशक बाद तक नेता और जन प्रतिनिधि ज़मीन से उठे हुए संघर्षशील लोग ही बनते थे । शायद इन्हीं परिस्थितियों को मद्देनज़र रखते हुए ही देश की तमाम विधानसभाओं और संसद के सदस्यों के लिए वेतन और अन्य कार्यों के लिए भत्ते का प्रावधान किया गया होगा । मगर आज जब राजनीति सेवा नहीं पेशा है और सामान्य परिवार का व्यक्ति जन प्रतिनिधि बन ही नहीं सकता , तब देश पर इनके वेतन और भत्तों का बोझ डालने की क्या आवश्यकता है ? कमाल की बात यह है कि प्रतीकात्मक रूप से शुरू हुआ यह ख़र्च हर दो चार साल में दोगुना हो जाता है । पूरी दुनिया में महज़ भारत ही इकलौता एसा देश है जहाँ अपना वेतन तय करने का अधिकार स्वयं सांसद और विधायकों को ही है । इस मामले में भी भारत इकलौता देश है कि जहाँ एक दिन के लिए भी विधायक या सांसद बन जाओ तो तमाम उम्र पेंशन मिलती है । जनप्रतिनिधियों का वेतन और भत्ता बढ़ाने के विधेयक पर भारत में कभी चर्चा नहीं होती और कुछ ही सेकेंडों में यह स्वीकृत हो जाता है । दोनो सदनो में मिला कर देश में कुल 780 सांसद हैं और देश की तमाम विधानसभाओं में कुल 4120 विधायक हैं । सांसद को एक लाख रुपया वेतन के अतिरिक्त रोज़ाना भत्ता, संसद आने का भत्ता, क्षेत्र में जाने का भत्ता, कपड़े धुलवाने , कम्प्यूटर और फ़ोन भत्ते के अलावा हवाई और रेलगाड़ी यात्रा और न जाने क्या क्या सुविधा मुफ़्त है । संसद की कैंटीन की मूल्य सूची तो सोशल मीडिया पर अक्सर रहती ही है । मज़ाक़ की स्थिति तो यह है कि सांसद को टेलिफ़ोन भत्ता दस हज़ार रुपये महीना है जबकि हज़ार पंद्रह सौ से महँगा मासिक पैकेज तो किसी भी टेलिफ़ोन ओपरेटर कम्पनी का नहीं है ।
उधर विधानसभाएँ और भी अधिक खर्चीली हैं। तेलंगाना में विधायक को 2.5 लाख रुपये, दिल्ली में 2.1. लाख, उत्तर प्रदेश में 1.87 लाख, महाराष्ट्र में 1.7 लाख और जम्मू-कश्मीर में 1.6 लाख रुपये महीना मिलता है । केवल त्रिपुरा ही एसा राज्य है जो अपने विधायकों को सबसे कम यानि केवल 34 हज़ार रुपया महीना देता है । मंत्रियों के लिए लोकसभा और विधानसभाओं ने लगभग दोगुनी राशि के पैकेज रखे हुए हैं । अपना वेतन बढ़ाने में हमारे जनप्रतिनिधि कितनी फुर्ती दिखाते हैं इसका उदाहरण है मध्य प्रदेश जहाँ सन 1990 में विधायकों को केवल एक हज़ार रुपया मासिक मिलता था और अब यह राशि एक लाख को पार कर गई है । इनसे इतर देश के एक लाख से अधिक पूर्व सांसदों व विधायकों की पेंशन राशि भी काफ़ी आकर्षक है । सैंकड़ों नेता एसे हैं जिन्हें दोनो पेंशन एक साथ मिल रही हैं और वह भी सालाना आठ फ़ीसदी वृद्धि और भत्तों के साथ । अपना सवाल यह है कि कोरोना संकट में आज जब हर कोई क़ुर्बानी दे रहा है तब इन सांसदों, पूर्व सांसदों, विधायकों और पूर्व विधायकों पर इतना ख़र्च जायज़ है ? बेशक मोदी सरकार ने सांसदों के वेतन में तीस फ़ीसदी की कटौती है मगर क्या यह ऊँगली कटवा कर शहीद होने जैसा नहीं हैं ? जनप्रतिनिधियों पर ख़र्च हो रहा हज़ारों करोड़ रुपया इस तंगी में क्या देश के काम नहीं आना चाहिये ? क़ुर्बानी देने की ज़िम्मेदारी क्या केवल आम लोगों की है , नेताओं की नहीं ? हो सकता है कि इस मुद्दे पर बात करना मुझे भी पक्का अब्दुल बिगाड़ू बना दे मगर बात तो कभी कभी अब्दुल की भी ठीक होती होगी ?

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