किताब जिसकी बैटरी डाउन नहीं होती
रवि अरोड़ा
उन दिनों मैं शहर के सनातन धर्म इंटर कालेज में पढ़ता था । तभी स्कूल की किताबों के अतिरिक्त जासूसी उपन्यास पढ़ने का चस्का लग गया । उपन्यास ख़रीदने के पैसे नहीं होते थे सो उन्हें माँग कर पढ़ना पड़ता था । इसी बीच रमतेराम मार्ग के पास एक दुकान खुली-फ़ैन्सी बुक स्टोर । दुकान का मालिक किराये पर भी किताब दे देता था। पुरानी किताब दस पैसे रोज़ और नई किताब का पंद्रह पैसे प्रतिदिन का किराया वह लेता था । जासूसी उपन्यास से शुरू हुआ किताबें पढ़ने का सिलसिला कब गम्भीर साहित्य की ओर बढ़ गया पता ही नहीं चला । स्कूल की लाइब्रेरी से केवल टीचर्स को किताबें मिलती थीं । पुस्तकालय की किताबों पर बच्चों का भी हक़ है यह तो एमएमएच कालेज में प्रवेश लेने के बाद ही पता चला । बेशुमार किताबें देख कर आँखें खुली की खुली रह गईं । हर विषय की सैंकड़ों किताबें । जो चाहे किताब ले लो और चाहे जितने दिन में पढ़ो , कोई किराया नहीं । शर्त बस एक कि पहली किताब वापिस करो और दूसरी ले जाओ । कुँए से निकल कर तालाब में तब पहुँचा जब राजधानी की दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी पहली बार देखी । समझ ही नहीं आया कि क्या इतनी किताबें भी होती हैं ? विश्व पुस्तक दिवस पर आज सुबह से बधाई संदेश मिलने शुरू हुए तो मन किताबों की दुनिया में ही लौट गया ।
किताबों की बात शुरू होते ही लोग बाग़
डिजिटल बुक बनाम किताब की बहस एसे छेड़ देते हैं जैसे यह कोई शाश्वत मुद्दा हो जबकि डिजिटल दुनिया केवल उतनी ही पुरानी है जितनी कि इंटरनेट की दुनिया । हज़ारों साल पहले जब हम लोग श्रुतियों के माध्यम से अपनी पुरानी पीढ़ी से ज्ञान पाते थे , उस दौर में भी कुछ इसी तरह की बहस हुई होगी जब पहली बार ताम्रपत्र पर ज्ञान को संजोया गया होगा । भोजपत्र के ज़माने में जब काग़ज़ का अविष्कार हुआ होगा तब भी नवाचारियों ने एसी चर्चा छेड़ी होगी । और आज जब ई-बुक की धूम है और गूगल का ई-बुक स्टोर, अमेजन का किंडल और एंडरायड का बुक सोफ़्टवेयर आ गया है , किताब को पुराने ज़माने की शय उसी तरह बताया जा रहा है । लेकिन बात एसी है नहीं । मुझे नहीं मालूम कि किताब के पुरानी शय होने के दावों के पीछे क्या तर्क हैं, मैं तो केवल वह बात कर रहा हूँ जिसका दुनिया भर में ट्रेंड आज दिख रहा है । और ट्रेंड तो किताबों के पक्ष में ही झुका नज़र आता है ।
अपने ही मुल्क की बात करूँ तो आठवें दशक से आज पाँच गुना अधिक किताबें छप रही हैं । पुस्तक मेलों में इतनी भीड़ उमड़ती है आदमी पर आदमी चढ़ा दिखता है । समृद्ध पुस्तकालयों की सदस्यता पाना आज भी टेडी खीर है ।.यह ठीक है कि ज़माना डिजिटल है मगर उसने तो एक तरह से किताबों की दुनिया को आगे ही बढ़ाया है । लोगबाग सोशल मीडिया पर किताबों का प्रचार करते हैं और वे धड़ाधड़ बिकती भी हैं । आनलाइन किताबें मंगवाने वालों की संख्या में भी इज़ाफ़ा दर्ज किया जा रहा है । बेशक डिजिटल दुनिया सुविधाजनक जान पड़ती है मगर उसकी सीमायें भी तो हैं । किताब में पढ़ी बात वर्षों तक याद रहती है जबकि इंटरनेट पर पढा हम जल्दी भूल जाते हैं । यूँ भी इंटरनेट सूचना का माध्यम है और ज्ञान के लिए हमें पुस्तकों की शरण में ही जाना पड़ता है । न्यूयार्क जैसे शहरों में आज बेशक स्टोरी डिस्पेंसिंग मशीनें लग गई हैं और तीन से पाँच मिनट में बच्चों को कहानियाँ सुनाती हैं मगर फिर भी इन मशीनों से बच्चों की किताबों की बिक्री कम नहीं हुई । लोगबाग़ यह भी कहते हैं कि डिजिटल दुनिया की विश्वसनीयता नहीं होती । गूगल अथवा विकिपीडिया पर तमाम फ़र्ज़ी जानकरियाँ भरी पड़ी हैं । उधर, किताबों के पक्ष में एसे सर्वे भी खड़े हैं जो कि दावा करते हैं कि उनसे तनाव में तेज़ी से कमी आती है जबकि डिजिटल दुनिया में तनाव ही तनाव हैं । सच कहूँ तो मुझे किताबों की सबसे ख़ास बात यह लगती है कि मोबाइल फ़ोन अथवा कंप्यूटर की तरह उनकी बैटरी डाउन नहीं होती ।