क़त्ल होते अख़बार
रवि अरोड़ा
वर्ष 1990 में मैंने अपना एक अख़बार निकाला । नाम था दैनिक जन समावेश । ख़बरों के लिहाज़ से बहुत अच्छा चल रहा था मगर विज्ञापनों का मामला ठन ठन गोपाल ही रहा । लगभग ढाई साल इस अख़बार को मैंने किसी तरह खींचा और फिर हार कर उसे बंद कर दिया और साथ ही क़सम भी खाई कि अब कभी अख़बार नहीं निकालूँगा । चूँकि और कुछ आता-जाता नहीं था सो अगले बीस सालों तक राष्ट्रीय अख़बारों और पत्रिकाओं में नौकरी करता रहा । अब कहते हैं न कि वह आदमी ही क्या जो एक ही ग़लती बार बार न दोहराये सो पाँच साल पहले फिर अख़बार निकालने का भूत सवार हुआ और ज़ोर शोर से फिर अख़बार निकाला- पीपुल टुडे । विज्ञापन न मिलने से साल भर में ही फिर हौसले पस्त हो गए और एक बार फिर तीसरी क़सम के राज कपूर की तरह क़सम खाई कि अब कभी यह काम नहीं करूँगा । दरअसल अख़बार निकालना है ही बहुत टेडी खीर । हर किसी के बस का यह रोग नहीं है। ख़बरें तो इस देश में बिखरी पड़ी हैं मगर विज्ञापन ढूँढे से भी नहीं मिलते । थोड़ा बहुत सरकारी विज्ञापन का सहारा रहता है मगर वह भी बड़े अख़बारों में ही निपट जाता है और लघु व मध्यम दर्जे के अख़बार मुँह ताकते रहते हैं । अब कोरोना के आतंक के माहौल में कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने सरकार को विज्ञापन बंद करने की जो सलाह दी है, वह यदि मान ली गई तो आपके घरों में जो अख़बार आते हैं उन्हें तो भूल ही जाइएगा ।
कोरोना की वजह से पूरे देश के सामने आर्थिक संकट है । अख़बार भी उसी नाँव पर सवार हैं जिन पर और सभी क्षेत्र के काम धंधे हैं । हालात को समझते हुए पत्रकारों के तमाम संघटनों ने जहाँ सोनिया गांधी के विज्ञापन वाले बयान की निंदा की है वहीं लघु और मध्यम दर्जे के अख़बारों के लिए पैकेज की भी माँग की है । इन संघटनों का कहना है कि पहले ही मीडिया हाउसेस की हालत पतली है और धड़ाधड़ नौकरियाँ जा रही हैं और ताज़ा माहौल में तो यह पूरा क्षेत्र ही डूब जाएगा । कुछ अख़बारों ने अभी से हाथ खड़े कर दिए हैं कि अप्रेल से वे अपने कर्मचारियों को वेतन नहीं दे पाएँगे । पहले से ही संकट में चल रहे अनेक अख़बारों ने तो अपने प्रकाशन ही बंद कर दिए हैं और अब केवल ऑनलाइन संस्करण ही निकाल रहे हैं । अब आप कहेंगे कि अख़बार बंद होते हैं तो होएँ हमें क्या ? मगर सच यह है कि इस संकट में हम भी अख़बार कर्मियों से कुछ कम प्रभावित होंगे ।
सरकारें हमेशा से अख़बारों की दुश्मन रही हैं । उनकी पल पल की ख़बर पहले केवल अख़बार और अब टीवी चैनल व अख़बार दोनो मिल कर जनता को बताते हैं । कल्पना कीजिए हमारे और सरकार के बीच से मीडिया हट जाये तो हमें केवल वही पता चलेगा जो सरकार हमें बताना चाहेगी । राजनैतिक दलों के आईटी सेल जो सोशल मीडिया के मार्फ़त हमें झूठ परोसते हैं उन्हें सच की कसौटी पर मापने का कोई अन्य औज़ार भी हमारे पास तब नहीं होगा । मीडिया के अनेक लोगों के प्रति हमारी अच्छी बुरी कैसी भी राय हो सकती है मगर कहीं न कहीं हमारे लोकतंत्र के यही तो चौकीदार हैं । जी हाँ यही चौकीदार हैं , वे राजनीतिक दल और उनके नेता नहीं जो ख़ुद को चौकीदार कहते फिरते हैं । मुआफ़ कीजिएगा इन नेताओं से बचने के लिए ही तो हमें अख़बार जैसा चौकीदार चाहिये । कहिये क्या कहते हैं ? होने दें अख़बारों क़त्ल या उनके साथ खड़े हों ?