कह दें धप्पा
रवि अरोड़ा
मेरा कभी चीन जाना नहीं हुआ । किसी चीनी को मैंने कभी देखा भी नहीं । हाँ एक बार सिक्किम गया था और नाथुला पास में ज़रूर दूर से कुछ चीनी सैनिक देखे थे । चीन ही क्या अन्य किसी बड़े मुल्क से भी मेरा कोई वास्ता नहीं रहा । अब जब प्रधानमंत्री आत्मनिर्भर होने और भारतीय वस्तुओं को ही ख़रीदने की बात कर रहे हैं तो मैं सोच रहा हूँ कि मेरे जैसे आम आदमी ने कब इससे इनकार किया था । कम से कम मैं तो झोला लेकर कभी चीन नहीं गया । अब दुकानों पर हर दूसरी चीज़ ही चीन की बनी हुई मिलती है तो मेरे आपके पास विकल्प ही क्या है ? वैसे कौन लाया यह सब सामान चीन अथवा दूसरे बड़े मुल्कों से ? किसी सरकारी विभाग ने अनुमति दी होगी या तस्करी से आता है अरबों रुपयों का यह माल ? किसी ने तो इंपोर्ट ड्यूटी वसूली होगी इस पर ? मैं तुच्छ बुद्धि समझ ही नहीं पा रहा कि स्वदेशी अथवा भारतीय सामान अपनाने का संकल्प किसे लेना है , आपको-मुझे अथवा सरकार को ? आज मुल्क में बुखार की गोली से लेकर गुजरात में लगी सरदार पटेल की विशालकाय मूर्ति तक चीन से ही आ रही है तो इसमें आपकी मेरी भूमिका ही क्या है ?
सन 1991 में जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने स्वदेशी जागरण मंच की शुरुआत की थी तो मैं बहुत उत्साहित हुआ था । मैं ही क्या इस अभियान को समर्थन देने का जुनून करोड़ों भारतीयों पर सवार हो गया था । उस समय केंद्र में कांग्रेस के नरसिम्हा राव की सरकार थी और मनमोहन सिंह उनके वित्त मंत्री थे । यह सरकार खुली अर्थव्यवस्था की ज़बरदस्त पैरोकर थी अतः उसने स्वदेशी आंदोलन की एक भी सिफ़ारिश नहीं मानी । पूरा देश इस सरकार की नीतियों से कुपित हो गया और उसने गद्दी पर भाजपा के सर्वोच्च नेता अटल बिहारी वाजपेई को लाकर बैठा दिया । मगर यह क्या , वाज़पेई सरकार भी कांग्रेस सरकार के नक़्शे कदम पर ही चलती रही और उसने भी अपने मूल संघटन आरएसएस के स्वदेशी आंदोलन की पूरी तरह से हवा निकाल दी । इस सरकार का स्पष्ट मानना था कि स्वदेशी का राग दक़ियानूसी है और देश को मनमोहन सिंह के बताए रास्ते पर ही चलना चाहिए। इत्तफ़ाक़न कांग्रेस फिर अगले दस साल के लिए सत्ता में आ गई । मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने और उन्होंने वैश्वीकरण की अपनी नीति को ही पुनः परवान चढ़ाया । उनके कार्यकाल में ही भारतीय बाज़ार चीनी माल से पट गए। अब पिछले छः सालों में नरेंद्र मोदी की सरकार भी उनका अनुसरण कर रही है और हालत यह हो गई है कि आटा चावल जैसी खाने पीने की चीज़ें छोड़ दें तो भारत में बना कुछ भी माल बाज़ारों में नहीं मिलता । कुल मिला कर यह कह सकते हैं कि पिछले 29 सालों में आरएसएस का कोई आंदोलन मुँह के बल गिरा तो वह स्वदेशी आंदोलन ही है और ख़ास बात यह रही कि इसमें उसके अपने संघटन भाजपा की भूमिका भी कम नहीं रही । लगभग तेरह साल केंद्र सरकार चलाते हुए भाजपा ने ही स्वदेशी जागरण मंच के नाम लेवाओ को बर्फ़ में लगाया ।
चलिये कोरोना की वजह से ही सही मोदी सरकार को एक बार फिर स्वदेशी की याद तो आई । अब पता नहीं यह भूत कब तक रहेगा ।कुछ पता नहीं कि विदेशी पूँजी का झुनझुने फिर कब बज उठे । हमारे मोदी जी खेल के नियम बार बार बदलने में यूँ ही सिद्धस्थ हैं । कहीं एसा न हो कि क़ोरोना से हमारा ध्यान हटाने के लिए वे विकास और आत्मनिर्भरता का गीत गाकर हमारे साथ कोई छुपन-छुपाई का खेल खेल रहे हों और फिर इसी तरह किसी दिन रात को आठ बजे टीवी पर आकर कह दें- धप्पा ।