एनडीटीवी का मर्सिया
रवि अरोड़ा
बात छह साल पुरानी है। मोदी सरकार ने अचानक नोटबंदी लागू कर दी थी। इस फैसले का उद्योग धंधों पर क्या प्रभाव पड़ा इस पर एक स्टोरी करने एनडीटीवी के स्टार एंकर रवीश कुमार गाज़ियाबाद आए थे । उन्होंने जिस भी परिचित उद्योगपति से बात की उसी की फैक्ट्री थोड़ी बहुत चल ही रही थी मगर बेहतर विजुअल के लिए रवीश को तलाश थी एक ऐसी फैक्ट्री की जो पूरी तरह बंद हो । दरअसल उनकी स्टोरी ही यही थी कि नोटबंदी से आम जन जीवन ही नहीं काम धंधे भी पूरी तरह ठप हो गए हैं, जबकि जमीनी स्तर पर ऐसा उन्हें दिख नहीं रहा था । दोपहर बाद जाकर उनकी तलाश पूरी हुई और उन्हें धागा बनाने वाली एक फैक्ट्री पूरी तरह बंद मिल गई और फिर उसके परिसर में घूम घूम कर उन्होंने मोदी सरकार और नोटबंदी पर अपनी स्टोरी की और तय शुदा स्क्रिप्ट के अनुरूप सरकार को जम कर गरियाया। बस वही दिन था जब मैंने रवीश कुमार का कोई कार्यक्रम नियमित रूप से देखना छोड़ दिया । बेशक मुझे भी मोदी सरकार का आलोचक माना जाता है मगर टोटल पहले लिख कर ऊपर की संख्याएं बाद में तय करने को मैं पत्रकारिता नहीं मानता। यकीनन रवीश कुमार जुझारू, सत्ता की आंख से आंख मिला कर बात करने का साहस रखने वाले और करोड़ों लोगों के दिलों पर राज करने वाले लोकप्रिय पत्रकार हैं मगर उन्हें पसंद करने के बावजूद मैं खुद को उनका फैन कहने से हिचकता ही हूं । हालांकि एनडीटीवी के मालिकान बदलने और रवीश कुमार के इस्तीफे पर मैं भी उतना ही दुःखी हूं जितना उनके अन्य करोड़ों चाहने वाले।
एक बात तो रवीश कुमार से नफरत करने वाले भी मानते हैं कि इनका रिसर्च वर्क बहुत उम्दा होता था । बेशक वे टोटल पहले तय करने में विश्वास करते हों मगर उनकी टीम के द्वारा जुटाए गए तथ्यों को कोई चुनौती नहीं दे सकता । यही बात थी कि वे सत्ता की आंख में कांटे की तरह चुभते थे । रवीश कुमार ही क्यों तमाम सत्तानशीं लोग पूरे एनडीटीवी समूह से ही नफरत करते थे। स्वयं मोदी जी को एनडीटीवी के मालिक प्रणय रॉय फूटी आंख नहीं सुहाते। गुजरात दंगों के बाद रॉय कई बार मोदी जी को सार्वजनिक रूप से अपने सवालों से रुसवा कर चुके थे। रवीश कुमार आज यदि रवीश कुमार हैं तो उसकी तमाम सफलताओं के पीछे यही रॉय ही खड़े हैं। दशकों तक विभिन्न अखबारों में कलम घसीटने के कारण मैं भली भांति जानता हूं कि मैनेजमेंट की स्वीकृति के बिना पत्रकार एक शब्द नहीं लिख सकता, इलैक्ट्रोनिक मीडिया में भी यह संभव नहीं है । किसकी खाट के नीचे आग लगानी है और किसे बक्शना है, यह मैनेजमेंट ही तो तय करता है। आज जिन्हें गोदी पत्रकार कहा जा रहा है, वह भी उसी तरह मालिकों के इशारे पर नाच रहे हैं, जैसे रवीश कुमार नाच रहे थे । साफ साफ कहूं तो तो न उधर पत्रकारिता हो रही है और न इधर । सबके अपने अपने एजेंडे हैं। अपने अपने दोस्त हैं और अपने अपने दुश्मन।
वैसे इसमें कोई संदेह नहीं कि रवीश कुमार ने जो मुकाम हासिल किया है वैसा बिरले ही कर पाते हैं। उन्हें देश के सबसे प्रभाव शाली सौ लोगों में शुमार किया जाता है। देश विदेश के अनेक प्रतिष्ठित सम्मान उनके नाम हैं। उनकी यह ताकत निकट भविष्य में भी कम होने वाली नहीं है। यह भी हो सकता है कि सोशल मीडिया से वे अपने आप को और अधिक निखार लें। एक तरह से यह अच्छा भी होगा । एनडीटीवी के अवसान के बाद यूं भी इलैक्ट्रोनिक मीडिया अब लगभग अप्रासंगिक ही हो गया है और सच्ची व खरी खबरों के लिए अन्य किसी मंच की दरकार तो अब होगी ही । इसी लिए मुझे लगता है कि बेशक यह एनडीटीवी का मर्सिया पढ़ने का वक्त है मगर रवीश कुमार की झोली से तो अभी और बहुत कुछ निकलना बाकी ही है।