उधार के नायक
रवि अरोड़ा
दादा जी की बहादुरी के दर्जनों क़िस्से पिताजी सुनाते हैं । मेरी कच्ची उम्र ही थी जब दादा जी का स्वर्गवास हुआ । हालाँकि मुझे अच्छी तरह याद है कि उनका क़द छोटा था और शरीर भी कोई ख़ास मज़बूत नहीं था मगर पिताजी के क़िस्सों में जो दादा जी नज़र आते हैं वह कोई सुपरमैन सरीके थे । शुरू शुरू में मैं इन क़िस्सों को अविश्वास की नज़र से देखता था मगर अब इसे अपने बुज़ुर्गों के प्रति पिताजी के अनुराग के रूप में देखता हूँ । मेरा विश्वास है कि दादा और परदादा से जुड़े पिताजी के अधिकांश क़िस्से कपोल कल्पित होंगे मगर इन क़िस्सों में एक बात सौ फ़ीसदी सत्य है और वह है मेरे पिताजी के मन में अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा और उनका वंशज होने को लेकर गौरव का अहसास । शायद यही श्रद्धा ही उन्हें अपने पूर्वजों को महामानव के रूप में देखने को प्रेरित करती होगी । हाल ही में फ़िल्म पद्मावती को लेकर हुए विवाद पर भी मैं कुछ एसा ही सोचता हूँ । साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि इतिहास में पद्मावती नाम कोई चरित्र नहीं है । सूफ़ी परम्परा के कवि मलिक मोहम्मद जायसी ने सोलहवीं सदी में पद्मावत नाम का जो महाकाव्य लिखा था , हम उसे ही इतिहास माने बैठे हैं जबकि बादशाह अलाउद्दीन ख़िलजी का दौर उससे ढाई सौ साल पहले का था । पद्मावती ही क्यों हम तो साहित्य में आए अपने तमाम एतिहासिक पात्रों के प्रति भी यही नज़रिया रखते हैं । यही वजह है कि चंद बरदाई द्वारा रचित महाकाव्य पृथ्वी राज रासो को इतिहास मान कर चौहान द्वारा अंधे होने के बावजूद मोहम्मद गौरी को तीर से बेध देने को सत्य मानते हैं और मत चूके चौहान का उद्घोष आज भी करते हैं । आल्हा ऊदल इतिहास में कहीं नज़र नहीं आते मगर बुंदेलखंड में आज भी चौपालों पर आल्हा गाया जाता है । जोधाबाई नाम की कोई रानी अकबर के हरम में नहीं थी और राजकुमार सलीम की अनारकली नाम की कोई प्रेमिका भी नहीं थी मगर यह पात्र हमारी स्मृतियों में हैं । यही नहीं हमारे तमाम देवी-देवता साहित्य के मार्फ़त ही हमारे श्रद्धा के केंद्र बने । कुल जमा बात यही है कि हमारा इतिहास बोध कम और साहित्यिक कृतियों पर आस्था अधिक है । यह घालमेल इस हद तक है कि साहित्य इतिहास हो गया और इतिहास किताबों में बंद साहित्य । अब सवाल यह है कि कोई समाज यदि अपने इतिहास में कुछ गौरवशाली पात्र अथवा घटनाएँ ढूँढता है तो क्या उसे एसा करना चाहिए अथवा नहीं ? एक हज़ार साल तक ज़ुल्मों गारत को झेलने वाले समाज में यदि नायक से अधिक खलनायक हुए तो क्या एसे समाज को साहित्य से कुछ नायक उधार लेने का हक़ है अथवा नहीं ? एक एसा समाज जो युगों तक अशिक्षित रहा हो क्या उसे यह कड़वा सत्य हज़म होगा कि उसका इतिहास इतना गौरवशाली नहीं है जितना वह उसे समझता है ? भाट और चारणों द्वारा की गई क़िस्सागोई यदि हमें झूठा ही सही मगर फिर भी अपने इतिहास के प्रति कुछ गौरवान्वित करती है तो क्या इसपर विराम लगाना चाहिए ? सवाल यह भी है कि काल्पनिक पात्रों और घटनाओं सम्बंधी समाज की मीठी स्मृतियों से छेड़छाड़ का क्या कोई लाभ भी है अथवा सत्य केवल सत्य की नीति का हमें अनुसरण करना चाहिए ।
पद्मावती फ़िल्म के निर्देशक संजय लीला भंसाली के साथ जयपुर में हुई मारपीट निंदनीय है और सरासर अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला है । एसे उत्पातियो के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई होनी ही चाहिए । उत्पात करने वाली करणी सेना भगवा ब्रिगेड का ही हिस्सा है । विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल द्वारा फ़िल्म के ख़िलाफ़ मोर्चा खोलना भी यही साबित करता है कि हिंदू राष्ट्र के पैरोकर अब कोई भी मौक़ा अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहते । उन्हें ना इतिहास से कुछ लेना देना है और ना ही साहित्य से । उनका काम तो बस इतने से चल जाता है कि पद्मावती हिंदू थी और अलाउद्दीन ख़िलजी मुसलमान । उधर भंसाली भी कहाँ दूध के धुले हैं । वे पैसा कमाने को फ़िल्म बनाते हैं ना कि इतिहास पर व्याख्यान देने को । अब सवाल यह है कि इस विवाद में हम कहाँ हैं ? कम से कम मैं तो एसे मुद्दों पर मिट्टी डालने के पक्ष में हूँ और अदम गोंडवी के इस शेर से रौशनी लेता हूँ-
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए ।