ईडी की जोरदार गुलाटियां

रवि अरोड़ा
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से प्रवर्तन निदेशालय यानि ईडी द्वारा की जा रही पूछताछ पर उबले कांग्रेसी मोहक लग रहे हैं। ये लोग और अधिक मोहक लगते यदि उनमें यह उबाल महंगाई और बेरोजगारी जैसे जनता से जुड़े मुद्दों पर आता। कांग्रेसी ही क्यों अन्य विपक्षी दलों ने भी पिछले आठ सालों में कौन सी फली फोड़ी है ? जनता पिसती है मगर इनका कर्तव्य केवल एक ट्वीट करने से पूरा हो जाता है और जब खुद पर आफ़त आती है तो सड़क पर उतर आते हैं। सोनिया हों या राहुल गांधी, चिदंबरम हों या संजय राउत, अजीत पवार हों या फारूख अब्दुल्ला अथवा अन्य कोई नेता ऐसी जांचों का विरोध क्यों करते हैं ? विश्वास क्यों नहीं करते कि बिना तथ्यों के सरकार चाह कर भी उन्हें फंसा नहीं पायेगी । यूं भी यदि ईमानदार हैं और निर्दोष साबित भी होते हैं तो इसी बहाने जनता की हमदर्दियां भी तो मुफ्त में मिलेंगी ?

वैसे इसमें कोई दो राय नहीं है कि इंफोर्समेंट डायरेक्ट्रेट यानि ईडी पर पहले दिन से ही सरकार के इशारों पर नाचने के आरोप लगते रहे हैं मगर उसका असली इस्तेमाल तो शायद अब मोदी सरकार ने ही किया है । पिछले आठ सालों में 2974 छापे मारे गए जबकि मनमोहन सिंह की सरकार के नाम केवल 112 बार ही इसे अंजाम देने का रिकॉर्ड था । मोदी सरकार ने इन आठ सालों में 95 हजार 432 करोड़ रूपए अटैच किए जबकि मनमोहन सिंह की सरकार केवल 2 हजार 974 करोड़ रूपए की संपत्ति अटैच कर पाई । इन आंकड़ों की रौशनी में प्रथम दृष्टया लगता है कि मोदी सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी पूर्ववर्ती सरकार के मुकाबले अधिक संवेदनशील है मगर ऐसा है नहीं । कांग्रेसी सांसद मनीष तिवारी के एक प्रश्न के उत्तर में वित्त राज्य मंत्री पंकज चौधरी ने लोकसभा में स्वीकार किया है कि आधा फीसदी से भी कम मामलों में ईडी आरोप सिद्ध कर पाई यानि 99 फीसदी से अधिक बाकी मामले हवा हवाई ही निकले। सरकार की इस स्वीकारोक्ति से ईडी के कामकाज पर भी गंभीर सवाल उठ रहे हैं कि 1जुलाई 2005 से 31 मई 2022 तक दर्ज किए गए 5422 मामलों में केवल 25 लोग ही दोषी क्यों पाए गए ? निर्दोष साबित होने पर अटैच संपत्ति जब मुक्त हो ही जाती है तो इसका इतना अधिक महिमा मंडन क्यों किया जाता है?

किसी से छिपा नहीं है कि नीरव मोदी, मेहुल चौकसी, विजय माल्या जैसी 19 बड़ी मछलियां अरबों रुपयों की देश को चपत लगा कर पिछले कुछ सालों में फरार हो गईं और ईडी उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाई । सारदा चिटफंड, रोजवैली चिट फंड, और अगस्ता वेस्टलैंड जैसे अरबों के घोटाले हो गए मगर निदेशालय को कानों कान खबर नहीं लगी । क्या यह आरोप सही है कि दो हजार से भी अधिक अफसरों वाले इस निदेशालय की सारी कवायद यहीं तक सीमित रहती है कि किस विपक्षी नेता के कैसे कान उमेठे जाएं ? वैसे लगता तो यही है कि सरकार के हाथ भी ईडी के रूप में एक ऐसा हथियार लग गया है जिसका कोई तोड़ किसी के पास नहीं। आयकर विभाग की अपनी सीमाएं हैं। सीबीआई जांच में राज्य सरकार को रोड़े अटकाने का अधिकार है मगर ईडी ही एक ऐसा मंत्र है जिससे सभी विपक्षी नेताओं को साधा जा सकता है । किसी राज्य सरकार का तख्ता पलटने और विपक्षियों को अपने खेमे में लाने में भी ईडी वह भूमिका अदा कर सकती है जो पार्टी का पूरा कैडर धरने, प्रदर्शन और आंदोलन भी नहीं कर सकते । अब इस तथ्यों के बाद बेशक आप भी इस निदेशालय को सरकार के इशारे पर नाचने वाला बंदर कहने लगें मगर आपको भी यह बात तो माननी ही पड़ेगी कि इस बंदर की गुलाटियां हैं जोरदार।

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