अवैज्ञानिक समाज की छाती पर भी सॉफ्ट लैंडिंग
रवि अरोड़ा
चंद्रमा पर सॉफ्ट लैंडिंग से अपना रोवर उतारने वाला भारत दुनिया का चौथा देश बन गया है। इन ऐतिहासिक पलों को स्क्रीन पर देखते हुए इतनी खुशी हुई थी कि बयान नहीं कर सकता । खुशी केवल इस बात की नहीं थी कि इससे दुनिया में भारत की धाक हो गई अथवा एक ही कदम से स्पेस तकनीक में हम बहुत आगे निकल गए । प्रसन्नता केवल इसलिए भी नहीं हुई कि अब भारत के लिए अनेक वे द्वार भी खुल जायेंगे जो अब तक बंद थे अथवा आर्थिक मामलों में भी अनेक संभावनाओं के द्वार खुलेंगे । इस खुशी की एक बड़ी वजह तो यह भी रही कि हमारे वैज्ञानिकों ने यह सब उस काल में कर दिखाया जो सोच के स्तर संभवत सर्वाधिक अवैज्ञानिक है। पाखंड, झूठी धार्मिक मान्यताएं, अंधविश्वास और विज्ञान विरोधी माहौल न केवल चरम पर है बल्कि उसे राजनीतिक सामाजिक स्वीकृति देने का भी उपक्रम चल रहा है। यकीनन इसरो की इस महान उपलब्धि से अब विज्ञान के प्रति लोगों का रुझान बढ़ेगा और हर उस बात पर चोट पड़ेगी जो इंसान और उसके समाज को आगे नहीं वरन पीछे धकेल रही है।
आंकड़े चुगली करते हैं कि भारत में मात्र आधा फीसदी लोग ही विज्ञान को जानते समझते हैं। शायद यही कारण है कि मुल्क में मक्कार धर्म गुरुओं की पौ बारह हो रही है। दूषित सामाजिक मान्यताओं में वे लोग भी जकड़े हुए हैं जो खुद को पढ़ा लिखा कहते हैं। बिल्ली के रास्ता काटने को अपशकुन मानना, दिन वार पर दुकान अथवा घर के द्वार पर नींबू हरी मिर्च टांगना तथा गुरुवार को फलां फलां काम न करना जैसा बहुत कुछ ऊट पटांग हमारे समाज में गहराई से अपनी पैठ बनाए हुए है। चंद्र यान 3 की सफलता से अब शर्तिया समाज में वैज्ञानिकता का बोध बढ़ेगा और देर सवेर कुरीतियों के नाश में भी इसकी महती भूमिका तय होगी। कम से कम उन पाखंडियों पर तो कुठाराघात अवश्य ही होगा जो चंद्र अथवा सूर्य ग्रहण जैसी प्राकृतिक घटना पर सूतक जैसा कुछ बता कर घरों की रसोई, मंदिर के कपाट और न जाने क्या क्या बंद करवा देते हैं।
यह देखना कितना दिलचस्प हो रहा है कि हमारे वैज्ञानिकों की इस कामयाबी का श्रेय वे लोग ही सर्वाधिक लेने की कोशिश कर रहे हैं जिनका पूरा इतिहास विज्ञान विरोधी रहा है। नाले की गैस से चाय बनाने की विधि बताने वाले ये लोग अब तक उस नेहरू को ही कटघरे में खड़ा करते रहे हैं जिसने आज से 54 साल पहले तब इसरो जैसी संस्था का गठन किया था जब भारत कंगाल था और आज जब हम अपने पैरों पर खड़े हो चुके हैं तब न केवल मंदिर जैसी चीजें बनाई जा रही हैं अपितु देश की राजनीति की धुरी भी विज्ञान, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी चीजों को दरकिनार कर जाति और धर्म को बनाया जा रहा है। यह क्या किसी प्रहसन से कम है कि जब हमारे वैज्ञानिक चांद पर रोबोट दौड़ा रहे हैं तब हमारे नेता जातीय आधार पर जनगणना के लिए मरे जा रहे हैं।
वैसे क्या यह जानकारी भी सीना चौड़ा करने वाली नहीं थी कि इसरो ने मात्र साढ़े छह सौ करोड़ रुपए की लागत में मिशन चंद्र यान 3 को पूरा कर दिखाया । इतने पैसे में तो हॉलीवुड में फिल्में बनती हैं। लगभग इतनी राशि तो भारत में रोजाना जीएसटी से ही एकत्र हो जाती है। इतने कम पैसे में ही भारत के हिस्से अब जो कुछ भी आना है, वह तो बहुमूल्य है। इतना पैसा तो महिला सशक्तिकरण के नाम पर ही खर्च किया जा सकता है, जाने अनजाने जिसका ब्रांड एंबेसडर यह मिशन था । सफल वैज्ञानिक के तौर पर साधारण वेशभूषा वाली और सामान्य घरों की महिलाओं को देखना न जाने कितनी महिलाओं के जीवन को नई रौशनी दे गया होगा । इतनी कम राशि तो देश में व्याप्त उस कूपमंडूकता के नाश पर भी खर्च की जा सकती है जो चहुंओर व्याप्त है । आखरी बात ! इतने कम पैसे में यदि भारतीय समाज में वैज्ञानिक चेतना का संचार हो सके तो ऐसे मिशन तो बार बार शुरू किए जाने चाहिएं।