अनाड़ विद्या
रवि अरोड़ा
बुज़ुर्ग समझा गये हैं कि काम जब बहुत महत्वपूर्ण हो तो अनाड़ियों के ज़िम्मे नहीं लगाना चाहिये । फिर पता नहीं किस अनाड़ी अधिकारी ने विकास दुबे एनकाउंटर की स्क्रिप्ट में कार पलटने का पहलू जोड़ दिया ? पुराने पुलिस अधिकारी बेवक़ूफ़ नहीं थे जो पिछले तीस साल से एक ही स्क्रिप्ट पर काम करते थे और फ़ार्मूला चाहे जितना मर्ज़ी घिस पिट गया हो मगर उसमें रत्ती भर भी परिवर्तन नहीं करते थे । हर एनकाउंटर में बदमाश पुलिस की पिस्टल छीन कर भागने का प्रयास करता था। पुलिस उसे आत्मसमर्पण करने को कहती थी और वो फ़ायर कर देता था । जवाबी कार्रवाई में पुलिस पार्टी भी गोली चलाती थी जिससे बदमाश मारा गया । पूरे घटनाक्रम के बाद हर बार पुलिस अधिकारियों का एक जैसा ही बयान और सैंकड़ों बार लिखा गया रेडीमेड प्रेस नोट अख़बारों में हूबहू छप जाता था । क्राइम रिपोर्टर्स को भी कम्प्यूटर में सेव फ़ाईल में बस घटनास्थल, दिन-तारीख़ , पुलिस कर्मियों के नाम और बदमाश की शिनाख्त एडिट करनी पड़ती थी बस । बेशक यह स्क्रिप्ट थकी हुई होती थी मगर दादी माँ के नुस्ख़े की तरह पूरी तरह कामयाब भी साबित होती थी ।एनकाउंटर के बाद होने वाली मजिस्ट्रेट जाँच में भी कोई दिक्कत पेश नहीं आती थी मगर पता नहीं इस बार किस अतिउत्साही अफ़सर ने पटकथा में बेबी फ़िल्म मार्का परिवर्तन कर दिया और उस गाड़ी को ही कहानी में पलटवा दिया जिसमें बैठा कर विकास दुबे को कानपुर लाया जा रहा था ।
आठ पुलिस कर्मियों की हत्या करने वाला कुख्यात विकास दुबे एनकाउंटर में मारा जाएगा यह तो पूरे देश को पहले से ही पता था । मगर सवाल यह कि मुठभेड़ की कहानी में कार की भूमिका किसने लिखी ? खामखाह अब मुठभेड़ को असली साबित करने के लिए कार पलटने की वजह साबित करनी पड़ेगी । सड़क पर उसके घिसटने के निशान दिखाने पड़ेंगे । बताना पड़ेगा कि बरसात से गीली सड़क पर कार पलटने के सबूत क्यों नहीं हैं ? पीछे चल रही मीडिया की गाड़ियों को उसी समय क्यों रोका गया ? बताना पड़ेगा कि सफ़र के दौरान विकास दुबे टाटा सफ़ारी गाड़ी में था और जो गाड़ी पलटी वह महेंद्रा की एक्सयूवी थी , एसा कैसे हो गया ? वग़ैरह वग़ैरह ।
न्याय में देरी से उकताया समाज अब न्याय के शॉर्ट कट का पक्षधर हो चला है और यूँ भी मरने के बाद विकास दुबे जैसों का कोई अपना नहीं रहता, अतः इस एनकाउंटर पर अधिक सवाल नहीं उठने जा रहे । शासन-प्रशासन की चूँकि एसी मुठभेड़ों में वाहवाही होती है अतः ऊँची कुर्सियों पर बैठे लोग भी इतने विस्तार में नहीं जाएँगे कि विकास दुबे किस परिस्थिति में मरा । यूँ भी ज़िंदा विकास दुबे सत्ता प्रतिष्ठान व विपक्ष के कई बड़े नेताओं के लिए मुसीबत होता मगर अब सब कुछ आसानी से निपट गया । हाँ कुछ दिन तक मीडियागिरी ज़रूर होगी और मुठभेड़ के झोल खोज खोज कर निकाले जाएँगे । टीवी पर एंकर चिल्लाएँगे और अख़बारों में सम्पादकीय छपेंगे और यह सब कुछ होगा उस अज्ञात अतिउत्साही अफ़सर के कारण जिसने कार पलटने का नया नुस्ख़ा कहानी में डाल दिया । आज़माया नुस्ख़ा यही था कि पुलिस वाले पेशाब करने के लिए किसी सूनसान जगह पर रुकते और आगे की कहानी सलीम-जावेद मार्का पहले से तैयार थी ही ।
एडीजी लॉ एंड ओर्डर प्रशांत कुमार जो इस पूरे मामले को देख रहे थे, ने पता नहीं अपने अफ़सरों को समझाया क्यों नहीं ? जबकि ग़ाज़ियाबाद में एसएसपी रहते हुए वे स्वयं पुलिस की पुरानी स्क्रिप्ट पर ही काम करते थे और उसी के बल पर यहाँ सौ से अधिक बदमाशों को मार गिराने में सफल हुए थे । अकेले प्रशांत कुमार ही क्यों नब्बे के दशक और उसके बाद यहाँ आए तमाम वरिष्ठ पुलिस अधिकारी भी इसी पटकथा पर विश्वास करते थे । वन रेंक प्रमोशन स्कीम में ग़ैर जिलों से बदमाशों को ला लाकर ठोकने वाले न जाने कितने दरोग़ा सीओ बने और कितने सीओ एसएसपी रिटायर हुए । यह सब कुछ कुछ होता था तयशुदा स्क्रिप्ट के अनुसार मगर बार पता नहीं किसने अधिक दिमाग़ चलाया और अनाड़ विद्या लगा दी ?